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भ० ऋषभदेवजी--अर्मियों से विवाद
अधोगति में ले जाते हैं। इसलिए इनकी आसक्ति हितकारक नहीं होती। इसलिए हे नरेन्द्र ! पाप के मित्र, धर्म के शत्रु और नरक की ओर ले जाने वाले ऐसे विषयों से आप विमुख रहें । इन्हें त्याग दें । इसी में आपका हित रहा हुआ है।"
नराधिपति ! हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि संसार में कोई मनुष्य सेव्य है, तो कोई सेवक है, एक दाता है, तो दूसरा याचक है, एक जीव, वाहन बनता है, तो दूसरा जीव उस पर सवार होता है, एक भयभीत हो कर अभयदान माँगता है, तो दूसरा अभयदान देता है और एक सुखी है, तो दूसरा दुःखी है । इस प्रकार धर्म-अधर्म के फल प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं । इसलिए आप अधर्म को त्याग कर धर्म का आचरण करें । इसी में आपका कल्याण है।"
स्वयं बुद्ध के युक्ति-संगत वचन सुन कर संभिन्नमति चुप रह गया, तब ‘शतमति' नाम के तीसरे क्षणिकवादी मन्त्री ने कहा--"मित्र ! प्रतिक्षण नाश होने वाली वस्तु का ज्ञान करने वाली शक्ति को ही 'आत्मा' कहते हैं। इसके सिवाय आत्मा नाम की कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है। बस्तु में स्थि रत्व नहीं होता। जीवों में तो स्थिरत्व बुद्धि है, वह तो वासना है । इसलिए पूर्व और पश्चात् क्षणों का वासना रूप एकत्व ही वास्तविक है । क्षणों का एकत्व सत्य नहीं है।"
स्वयंबद्ध--"मित्र ! कोई भी वस्तु अन्वय--परम्परा रहित नहीं होती । वस्तु में स्थिरत्व--ध्रुवत्व भी होता है। जिस प्रकार जल और घास आदि पूर्व कारण का पश्चात् कार्य, गाय से दूध प्राप्ति रूप होता है, उसी प्रकार ध्रुवत्व भी है । कोई भी वस्तु आकाशकुसुम के समान परम्परा रहित नहीं है । अतएव क्षणभंगुर की मान्यता व्यर्थ है । यदि क्षणभंगुर---प्रतिक्षण विनष्ट होने, की बात ही सत्य हो, तो संतति की परम्परा कैसे मानी जा सकती है ? यदि संतति-परम्परा एवं नित्यता मानी जाती है, तो समस्त पदार्थों में क्षणभंगुरत्व किस प्रकार माना जा सकेगा? सभी पदार्थों को एकान्त अनित्य एवं प्रतिक्ष ग नाश होने वाले माने जायँ, तो किसी के यहाँ रखी हुई धरोहर कालान्तर में फिर माँगना और पूर्व की बातों और घटनाओं की स्मृति रहना किस प्रकार होता है ?"
___ हाँ, यदि जन्म होने के बाद के क्षण में ही सभी की मृत्यु हो जाती हो, जन्म के बाद दूसरे क्षण में वह पुत्र, प्रथम के माता-पिता का पुत्र न कहाता हो और वे माता-पिता नहीं माने जाते हों, तथा विवाह के पश्चात् बाद के क्षण में प्रथम क्षण के नाश के साथ ही पति-पत्नी का सम्बन्ध भी नष्ट हो जाता हो--उनमें स्थायित्व नहीं रहता हो, तब तो प्रतिक्षण विनष्ट होने की मान्यता सत्य हो सकती है। किन्तु यह प्रत्यक्ष के विरुद्ध है,
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