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________________ २२२ तीर्थंकर चरित्र प्रजापति के पास सन्देश ले कर भेजा । राजदूत ने प्रजापति से सम्बन्ध की बात कहीं और भविष्यवेत्ता द्वारा त्रिपृष्ठकुमार के वासुदेव होने की बात भी कही। राजा भी पत्नी को गर्भकाल में आये सात स्वप्नों के फल की स्मृति रखता था । उसने ज्वलनजटी विद्याधर का आग्रह स्वीकार कर लिया। जब दूत ने रथनूपुर पहुँच कर स्वीकृति का सन्देश सुनाया, तो ज्वलनजटी बहुत प्रसन्न हुआ । किन्तु वह प्रसन्नता थोड़ी देर ही रही । उसने सोचा कि इस सम्बन्ध की बात अश्वग्रीव जानेगा, तो उपद्रव खड़ा होगा ।' अन्त में उसने यही निश्चित किया कि पुत्री को ले कर पोतनपुर जावे और वहीं लग्न कर दे। वह अपने चुने हुए सामन्तों, सरदारों और सैनिकों के साथ कन्या को ले कर चल दिया और पोतनपुर नगर के बाहर पड़ाव लगा कर ठहर गया । प्रजापति उसका आदर करने के लिए सामने गया और सम्मानपूर्वक नगर में लाया । राजा ने उनके निवास के लिए एक उत्तम स्थान दिया, जिसे विद्याधरों ने एक रमणीय एवं सुन्दर नगर बना दिया। इसके बाद विवाहोत्सव प्रारंभ हुआ और बड़े आडम्बर के साथ लग्नविधि पूर्ण हुई । पत्नी की माँग त्रिखण्ड की अनुपम सुन्दरी विद्याधरपुत्री स्वयंप्रभा को सामने ले जा कर त्रिपृष्ठ कुमार से ब्याहने का समाचार सुन कर अश्वग्रीव आगबबूला हो गया । भविष्यवेत्ता के कथन और सिंह वध की घटना के निमित्त से उसके हृदय में द्वेष का प्रादुर्भाव तो हो ही गया था । उसने इस सम्बन्ध को अपना अपमान माना और सोचा--" में सार्वभौम सत्ताधीश हूँ । ज्वलनजटी मेरे अधीन आज्ञापालक है । मेरी उपेक्षा कर के अपनी पुत्री त्रिपृष्ठ को कैसे ब्याह दी ?” उसने अपने विश्वस्त दूत को बुलाया और समझा-बुझा कर ज्वलनजटी के पास पोतनपुर ही भेजा । भवितव्यता उसे विनाश की ओर धकेल रही थी और परिणति, पर- स्त्री की माँग करवा रही थी । विनाशकाल इसी प्रकार निकट आ रहा था । दूत पोतनपुर पहुँचा और ज्वलनजटी के समक्ष आ कर अश्वग्रीव का सन्देश सुनाया और कहा; - “राजन् ! आपने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ा मारा है। आपको यह तो सोचना था कि रत्न तो रत्नाकर में ही सुशोभित होता है, डाबरे - खड्डे में उसके लिए स्थान नहीं हो सकता । महाराजाधिराज अश्वग्रीव जैसे महापराक्रमी स्वामी की उपेक्षा एवं अवज्ञा कर के आपने अपने विनाश को उपस्थित कर लिया है । अब भी यदि आप अपना हित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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