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________________ २१६ सहन नहीं कर सकेगा ।" त्रिपृष्ठ ने अपना हाथ रोक लिया । किन्तु अपने साथ आये हुए सुभटों को आज्ञा दी कि- " मैं इस दुष्ट को जीवन-दान देता हूँ । किन्तु इसके पास की सभी वस्तुएँ छिन लो ।" तीर्थंकर चरित्र राजकुमार की आज्ञा पाते ही सुभट उस पर टूट पड़े। उसके शस्त्र, आभूषण और प्राप्त भेंट आदि वस्तुएँ छीन ली और मार-पीट कर चल दिये । जब यह समाचार नरेश के कानों तक पहुँचे, तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई। उन्होंने सोचा --' राजदूत के पराभव का परिणाम भयंकर होगा । अब अश्वग्रीव की कोपाग्नि भड़केगी और उसमें मैं, मेरा वंश और यह राज भस्म हो जायगा । इसलिये जब तक चण्डवेग मार्ग में है और अश्वग्रीव के पास नहीं पहुँचा, तब तक उसको मना कर प्रसन्न कर लेना उचित है । इससे यह अग्नि जहाँ उत्पन्न हुई, वहीं बुझ जाएगी और सारा भय दूर हो जायगा । यह सोच कर प्रजापति ने अपने मन्त्रियों को भेज कर चण्डवेग का बड़ा अनुनय-विनय कराया और उसे पुनः राज- प्रासाद में बुलाया । उसके हाथ जोड़ कर बड़े ही विनय के साथ पहले से चार गुना अधिक द्रव्य भेंट में दिया और नम्रतापूर्वक कहा; " आप जानते ही हैं कि युवावस्था दुःसाहसपूर्ण होती है । एक गरीब मनुष्य का युवक पुत्र भी युवावस्था में उन्मत्त हो जाता है, तो महाराजाधिराज अश्वग्रीव की कृपा से, वृद्धि पाई सम्पत्ति में पले मेरे ये कुमार, वृषभ के समान उच्छृंखल हो जाय, तो आश्चर्य की बात नहीं है । इसलिए हे कृपालु मित्र ! इन कुमारों के अपराध को स्वप्न के समान भूल ही जावें । आप तो मेरे सगे भाई के समान हैं । अपना प्रेम सम्बन्ध अक्षुण्ण रखिएगा और महाराज अश्वग्रीव के सामने इस विषय में एक शब्द भी नहीं कहें ।" चण्डवेग का क्रोध, राजा के मीठे व्यवहार से शांत हो गया । वह बोला ; -- " 'राजन् ! आपके साथ मेरा चिरकाल का स्नेह सम्बन्ध है । मैं इन छोकरों की मूर्खता की उपेक्षा करता हूँ और इन कुमारों को में अपना ही मानता हूँ । आपका हमारा सम्बन्ध वैसा ही अटूट रहेगा । आप विश्वास रखें । लड़कों के अपराध का उपालंभ उनके पालक को ही दिया जाता है और यही दण्ड है । इसके अतिरिक्त कहीं अन्यत्र पुकार नहीं की जाती । अतएव आप विश्वास रखें । में महाराज से नहीं कहूँगा । जिस प्रकार हाथी के मुँह में दिया हुआ घास, पुनः निकाला नहीं जा सकता, उसी प्रकार महाराज के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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