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भ• ऋषभदेवजी--अधर्मियों से विवाद
जीवन नष्ट हो जाता है । जिस प्रकार गधे के सिर पर सींग नहीं होते, उसी प्रकार धर्मअधर्म भी नहीं है । जिस प्रकार पाषाण की स्नान, विलेपन, पुष्प और वस्त्राभूषण से पूजा करने से पुण्य नहीं होता और पाषाण पर बैठ कर मलोत्सर्ग या मूत्रोत्सर्ग करने से पाप नहीं होता, उसी प्रकार धर्म-अधर्म और पुण्य-पाप भी कुछ नहीं होता । यदि कर्म से ही जीव उत्पन्न होते और मरते हों, तो पानी का बुलबुला किस कर्म से उत्पन्न और नष्ट होता है ? अतएव जब तक हम इच्छापूर्वक चेष्टा--क्रिया करते हैं, तब तक 'चेतन' कहा जाता है और चेतना नष्ट होने पर सब कुछ नष्ट हो जाता है । इसके बाद पुनर्भव नहीं होता । पुनर्भव की बात ही युक्ति-रहित और असत्य है। इसलिए हे मित्र स्वयंबुद्ध ! अपने स्वामी, शिरीष जैसी कोमल शय्या में रूप और लावण्य से भरपूर ऐसी सुन्दर रमणियों के साथ क्रीड़ा करते हैं और अमृत के समान भोज्य एवं पेय पदार्थों का यथारुचि आस्वादन करते हैं, उन्हें निषेध नहीं करना चाहिए । सुखोपभोग में बाधक बनना स्वामीद्रोह है।"
' "हे स्वामीन् ! आप धर्म की भ्रम नाल से दूर रहें और दिन-रात सुखोपभोग में मग्न रहें।"
संभिन्नमति के ऐसे विचार सुन कर स्वयंबुद्ध ने कहा --
"अहो, नास्तिकता कितनी भयानक होती है। जैसे अन्धा नेता, खुद को और अपनी टोली को भी अन्धकूप में गिरा देता है, वैसे ही नास्तिक-मति के विचारक भी भोले लोगों को नास्तिक बना कर खुद अधोगति में जाते हैं और साथियों को भी ले जाते हैं । नास्तिक लोग आत्मा का अस्तित्व नहीं मानते, किन्तु विचारशील व्यक्ति के लिए यह अनुभव-गम्य है । जिस प्रकार हम स्व-संवेदन से सुख दुःख को जानते हैं, उसी प्रकार मात्मा को भी जान सकते हैं । स्व-संवेदन में किसी प्रकार की बाधा नहीं होती । इसलिए आत्मा का निषेध करने में कोई भी शक्ति अथवा युक्ति समर्थ नहीं हो सकती । 'मैं सूखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, मुझे भूख लगी है, मैं प्यासा हूँ,'--आदि भाव आत्मा के अतिरिक्त किसी भूत-जड़ में उत्पन्न नहीं हो सकते । इस प्रकार के ज्ञान से अपने शरीर के भीतर रही हई आत्मा की सिद्धि होती है। जितने मनुष्य दिखाई देते हैं, उन सभी में बुद्धिपूर्वक कार्य में प्रवृत्ति होती है । इसलिए उनमें भी आत्मा है--ऐसा सिद्ध होता है । जो प्राणी मरते हैं, वे ही पुनः उत्पन्न होते हैं, इसलिए आत्मा का परलोक भी है। जिस प्रकार बाल्यावस्था से तरुण अवस्था और तरुण अवस्था से वृद्धास्वस्था प्राप्त होती है। इन अवस्थाओं के परिवर्तन में भी आत्मा तो वही रहती है, उसी प्रकार शरीरान्तर से पुनर्जन्म होता है।
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