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________________ भ० पद्मप्रभःजी--धर्मदेशना १८१ बिताने वाला) रहता है, किन्तु वह कभी अन्तर्मुखी नहीं होता। धन की इच्छा से विव्हल बना हुआ मनुष्य, चाकरी, कृषि, व्यापार और पशुपालन आदि उद्योगों में अपना जन्म निष्फल गँवाता है । कभी चोरी करता है, तो कभी जूआ खेलता है और कभी जार-कर्म कर के मनुष्य संसार-परिभ्रमण बहुत बढ़ा लेता है। कई सुख-सामग्री प्राप्त मनुष्य, मोहान्ध हो कर काम-विलास से दुःखी हो जाते हैं और दीनता तथा रुदन करते हुए मनुष्य-जन्म को खो देते हैं, किन्तु धर्म-कार्य नहीं करते । जिस मनुष्य-जन्म से अनन्त कर्मों के समूह का क्षय किया जा सकता है, उस मनुष्य-जन्म से पापी मनुष्य, पाप ही पाप किया करते हैं। मनुष्य-जन्म, ज्ञान, दर्शन और चारित्र, इन तीन रत्नों का पात्र रूप है । ऐसे उत्तमोत्तम जन्म में पाप-कर्म करना तो स्वर्ण पात्र में मदिरा (अथवा मूत्र) भरने जैसा है। मनुष्य जन्म की प्राप्ति 'शमिलायुग' * के समान महान् दुर्लभ है । मूर्ख मनुष्य, चिन्तामणी रत्न के समान इस मानव-भव को पाप-कर्म में गवा कर हार जाता है। मनुष्य-जन्म, स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति के कारण रूप है, किन्तु आश्चर्य है कि मनुष्य, पाप-कर्म के द्वारा इसे नरक प्राप्ति का साधन बना लेता है। मनुष्य-भव की अनुत्तर विमान के देवता भी आशा करते हैं । किन्तु पापी मनुष्य ऐसे दुर्लभ मानव-भव को पा कर भी पाप-कर्म में ही आसक्त रहते हैं । यह कितने दुःख की बात है । नरक के दुःख तो परोक्ष हैं, किन्तु मनुष्य-भव के दुःख तो प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं । इसलिए मनुष्य-सम्बन्धी दुःखों का विशेष वर्णन करना आवश्यक नहीं है। देव-गति के दुःख देव-गति में भी दुःख का साम्राज्य चल रहा है । शोक, अमर्ष, खेद, ईर्षा भौर दीनता से देवों की बुद्धि भी बिगड़ी हुई रहती है। दूसरों के पास विशेष ऋद्धि देख कर देव भी अपनी हीन-दशा पर खेद करते हैं। उन्हें अपने पूर्व-जन्म के उपार्जित शुभ-कर्म की कमी का शोक रहता है। दूसरे बलवान् और ऋद्धिशाली देवों द्वारा होते हुए अपमान एवं अड़चनों और उसके प्रतिकार की असमर्थता के कारण अल्प-ऋद्धि वाले देव, चिन्ता एवं शोक • गाड़ी की धुरी अथवा जूआ और खोली, दोनों को स्वयंभुरमण समुद्र में एक-दूसरे को पूर्वपश्चिम के समान विपरीत दिशा में डाल दिया जाय, तो दोनों का परस्पर मिल कर जुझ जाना महान कठिन है। इसी प्रकार मनुष्य-जन्म की प्राप्ति भी महान् दुर्लभ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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