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________________ धर्मदेशना एकत्त्व भावना जिन भव्य प्राणियों में हिताहित और कार्याकार्य को समझने की योग्यता है, उन्हें कर्तव्य-पालन में उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि पुत्र, मित्र तथा स्त्री आदि से सम्बन्धित तथा स्वयं के शरीर सम्बन्धी जो भी क्रिया की जाती है, वह सब ‘परक्रिया' है --दूसरों का कार्य है । स्वकार्य बिलकुल नहीं है । क्योंकि अपनी आत्मा के अतिरिक्त सभी 'पर' हैं--दूसरे हैं। इन दूसरों का संयोग, उदय-भाव जन्य है, जिसका वियोग होता ही है जो वस्तु सदैव साथ रहे, वही स्व (अपनी) हो सकती है और जिसका कालान्तर में भी वियोग होता है, वह अवश्य पर है। यह जीव अकेला जन्म लेता है और अकेला ही मरता है । अपने संचित किये हुए कर्म का अनुभव भी अकेला ही करता है । एक द्वारा चोरी कर के लाया हुआ धन, सभी कूटम्बी मिल कर खा जाते हैं, किन्तु चोरी का दण्ड तो चोरी करने वाला अकेला ही भगतता है। उसे नरक गति में अपनी करणी का दुःखदायक फल भगतना ही पड़ता है। उस समय खाने वाला कोई भी दुःख-भोग में साथी नहीं रहता । दुःख रूपी दावानल से भयंकर बने हुए और अत्यन्त विस्तार वाले, भव रूपी अरण्य में कर्म के वशीभूत हुआ प्राणी अकेला ही भटकता रहता है। उस समय उसके कुटुम्बी और प्रियजनों में से कोई एक भी सहायक नहीं होता। यदि कोई अपने शरीर को ही सुख-दुःख का साथी मानता है, तो यह भी ठीक नहीं है। शरीर तो सुख-दुःख का अनुभव कराने वाला है। इसीके निमित्त से आत्मा दुःख भोगती है। रोग, जरा और मृत्यु शरीर में ही होते हैं । यदि शरीर नहीं हो, तो ये दुःख भी नहीं होते। यदि शरीर को ही सदा का साथी माना जाय, तो यह भी उचित नहीं है । औदारिक और वैक्रिय शरीर तो जन्म के साथ बनता है और मृत्यु के साथ छूट जाता है। यह पूर्वभव से साथ नहीं आता, न अगले भव में साथ जाता है । पूर्वभव और पुनर्भव के मध्य के भव में आई हुई काया को सदा की साथी कैसे मानी जा सकती है ? यदि कहा जाय कि आत्मा के लिए धर्म अथवा अधर्म साथी है, तो यह भी सत्य नहीं है, क्योंकि धर्म और अधर्म की सहायता मोक्ष में कुछ भी नहीं है। इसलिए संसार में शभ और अशुभ कर्म करता हुआ जीव, अकेला ही भटकता रहता है और अपने शुभाशुभ Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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