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तीर्थंकर चरित्र
हुआ । 'पुरुषसिंह' नाम दिया । यौवनवय में आठ राजकन्याओं के साथ लग्न हुए । एक बार उद्यान में क्रीड़ा करते हुए कुमार ने श्री विनयनन्दन मुनिराज को देखा और उनका उपदेश सुन कर विरक्त हुआ । माता-पिता की आज्ञा ले कर दीक्षित हुआ और उत्कृष्ट भावों से आराधना करते हुए तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध, दृढीभूत कर लिया। फिर काल कर के वैजयंत नाम के अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए ।
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विनिता नगरी में 'मेघरथ' राजा थे । उनकी रानी का नाम 'सुमंगलादेवी' था । पुरुषसिंह का जीव, वैजयंत विमान की ३३ सागरोपम की आयु पूर्ण कर के सुमंगलादेवी की कुझी में, श्रावण शुक्ला द्वितीया को गर्भ रूप में उत्पन्न हुआ ।
महारानी का न्याय
उस समय एक धनाढ्य व्यापारी अपनी दो पत्नियों को साथ ले कर व्यापार करने
के लिए विदेश गया था । वहाँ एक स्त्री के पुत्र उत्पन्न हुआ । पुत्र का पालन दोनों सपत्नियों ने किया । धनार्जन कर के वापिस घर आते समय रास्ते में ही वह व्यापारी मर गया । उनके धन का मालिक उसका पुत्र था । नपूती स्त्री ने सोचा--" यह पुत्र वाली है, इसलिए मालकिन यह हो जायगी और मेरी दुर्दशा हो जायगी ।" उसने कहा- पुत्र मेरा है, तेरा नहीं है ।" दोनों झगड़ती हुई विनिता नगरी में आई और नरेश के सामने अपना झगड़ा उपस्थित किया । राजा विचार में पड़ गया ।
दोनों स्त्रिये वर्ण एवं आकृति में समान थीं और पुत्र छोटा था । वह बोल भी नहीं सकता था । यदि आकृति में विषमता होती, तो जिसकी आकृति से बच्चे की आकृति मिलती, या बच्चा स्वयं बोल कर अपनी जननी का परिचय देता, तो निर्णय का कुछ आधार मिलता | बच्चे को दोनों ने पाला था, इसलिए वह दोनों के पास जाता था। अब निर्णय हो भी तो किस आधार पर ?
नरेश और सभासद सभी उलझन में पड़ गए । समय हो जाने पर भी सभा विसजित नहीं हुई । भोजनादि का समय भी निकल गया। अंत में मन्त्रियों की सलाह से वाद को भविष्य में विचार करने के लिए छोड़ कर सभा विसर्जित की गई । राजा अन्तःपुर में गया। रानी ने विलम्ब का कारण पूछा। राजा ने विवाद की उलझन बताई । रानी भी उस विवाद को सुन कर प्रभावित हुई । गर्भ के प्रभाव से उसकी मति प्रेरित हुई। रानी ने कहा-
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