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तीर्थकर चरित्र
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-~-अहो ! इन्द्र और उपेन्द्र * वासुदेवादि भी मृत्यु के अधीन हो जाते हैं, तो मृत्यु रूपी महा भय के उत्पन्न होने पर इन पामर प्राणियों के लिए कौन शरणभूत होगा? माता, पिता, बहिन, भ्राता एवं पुत्रादि के देखते ही प्राणी को उसके कर्म, यमराज के घर की ओर (चारों गति में) ले जाते हैं। अपने कर्मों से ही मृत्यु का ग्रास बनते हुए, अपने प्रिय सम्बन्धी को देख कर मोहमूढ़ प्राणी रोते हैं, शोक करते हैं। किन्तु यह नहीं सोचते कि थोड़े समय के बाद मेरी भी यही दशा होगी। मुझे भी मौत के मुंह में जाना पड़ेगा।
दुःख रूपी दावानल की उठती हुई प्रबल ज्वालाओं से भयंकर बने हुए इस संसार रूपी महा बन में, मृग के बच्चों के समान प्राणियों के लिए धर्म के अतिरिक्त कोई भी शरणभूत नहीं है।"
__ भ० अभिनंदन स्वामी के 'वज्रनाभ' आदि ११६ गणधर हुए । तीन लाख साधु, छ: लाख तीस हजार साध्वियें, ९८०० अवधिज्ञानी, १५.० चौदह पूर्वी, ११६५० मनःपर्यवज्ञानी, ११००. वादलब्धि वाले, २८८.०० श्रावक और ५२७००० श्राविकाएँ,प्रभु के धर्म-तीर्थ में हुए। केवलज्ञान और तीर्थ स्थापना के बाद आठ पूर्वांग और अठारह वर्ष कम लाख पूर्व व्यतीत हुए, तब एक मास के अनशन से समेदशिखर पर्वत पर वैशाख-शुक्ला अष्टमी को पुष्प नक्षत्र में सिद्ध हुए और शाश्वत स्थान को प्राप्त कर लिया । देवों और इन्द्रों ने प्रभु का निर्वाण उत्सव मनाया।
चौथे तीर्थंकर
भगवान्
।। अभिनन्दनजी का चरित्र सम्पूर्ण।
* जैन साहित्य में 'उपेन्द्र' पद का उल्लेख अन्यत्र देखने में नहीं आया। कोषकारों ने 'उपेन्द्र' शब्द का अर्थ 'वामन अवतारी विष्णु' किया है ।
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