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तीर्थकर चरित्र
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प्रभु के गर्भ में आने पर राज्य और नगर में सर्वत्र अभिनन्द (आनन्द) व्याप्त हो गया, इससे आपका नाम 'अभिनन्दन' दिया गया। साढ़े बारह लाख पूर्व तक आप राजकुमार रहे । इसके बाद पिता ने आपका राज्याभिषेक कर के सर्वविरति स्वीकार कर ली। इस प्रकार आपने छत्तीस लाख पूर्व और आठ पूर्वांग व्यतीत किया। इसके बाद वर्षीदान दे कर माघ शु. १२ के दिन अभिचि नक्षत्र में, बेले के तप से संसार का त्याग कर दिया । प्रव्रज्या लेते ही आप को मन:पर्यव ज्ञान उत्पन्न हो गया। आपके साथ अन्य एक हजार राजा भी दीक्षित हुए । प्रभु अठारह वर्ष छद्मस्थ अवस्था में रहे और पौष-शुक्ला १४ को अभिचि नक्षत्र में ही केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर के तीर्थ की स्थापना की। आपने प्रथम धर्मदेशना इस प्रकार दी।
धर्मदेशना अशरण भावना
"यह संसार अनेक प्रकार के दुःख, शोक, संकट एवं विपत्ति की खान है । इस खान में पड़ते हुए मनुष्य को बचाने में कोई भी शक्ति समर्थ नहीं है। माता, पिता, बन्धु, पुत्र, पति, पत्नी और मित्रादि स्वजन-परिजन कोई भी रोग के आक्रमण से होते हुए कष्ट से भी नहीं बचा सकते, तब मौत से तो कैसे बचावेंगे ? इन्द्र और अहमेन्द्रादि जैसे महान् बलशाली भी मृत्यु के झपाटे में पड़ जाते हैं। उन्हें मृत्यु के मुख से बचाने वाला-काल का भी काल ऐसा कौन-सा आश्रय है ? अर्थात् कोई नहीं है।
मृत्यु के समय माता, पिता, भाई, भगिनी, पुत्र, पत्नी आदि सभी देखते ही रह जाते हैं। उसे बचाने की शक्ति किसी में नहीं होती। उस निराधार प्राणी को कर्म के अधीन हो कर अकेला जाना ही पड़ता है । इस प्रकार मृत्यु पाते हुए जीव के मोहमूढ़ सम्बन्धी जन विलाप करते हैं। उन्हें स्वजन के मर जाने का दुःख तो होता है, किन्तु वे यह विचार नहीं करते कि-'मैं स्वयं भी अशरणभूत हूँ। मेरा रक्षक भी कोई नहीं हैं। मुझे भी इसी प्रकार मरना पड़ेगा। जिस प्रकार महा भयंकर बन में चारों ओर उग्र दावानल जल रहा हो, उसकी लपटें बहुत ऊँची उठ रही हों, जिसमें गजराज जैसे बड़े प्राणी भी नहीं बच सकते, तब बिचारे मृग के छोटे बच्चे की तो बात ही क्या है ? उसी प्रकार मौत की महाज्वाला में जलते हुए संसार में, प्राणी का रक्षक कोई नहीं है ।
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