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________________ १६० तीर्थंकर चरित्र बादलों का नभ-मण्डल में छा जाना और क्षणभर में बिखर जाना देख कर राजा विचार में पड़ गया । उसने सोचा- 46 अहो ! यह कैसी विडम्बना है ? सघन मेघ को न तो व्यापक रूप से आकाश मण्डल पर अधिकार जमाते देर लगी और न बिखर कर छिन्न-भिन्न होते देर लगी । इसी प्रकार इस संसार में सभी प्रकार की पौद्गलिक वस्तुएँ भी नष्ट होने वाली है । मनुष्य अनेक प्रकार की योजनाएँ बनाता है । अनेक प्रकार की सामग्री संग्रह करता है, हँसता है, खेलता है, भोगोपभोग करता है और वैभव के मोह में रंगा जाता है, किन्तु जब प्रतिकूल दशा आती है, तो सारा वैभव लुप्त हो जाता है और दुःख में झुरता हुआ प्राणी, मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । कोई घोड़े पर चढ़ कर घमण्डपूर्वक इधर-उधर फिरता है, किन्तु जब अशुभ कर्म का उदय होता है, तो वह घोड़ा उसको नीचे पटक कर ठण्डा कर देता है । कई वैभव में रचे-मचे लोगों को चोर डाकू, धन और प्राण लूट कर कुछ क्षणों में ही सारा दृश्य बिगाड़ देते हैं । अग्नि से जल कर, पानी की बाढ़ में बह कर दिवाल गिरने पर उसके नीचे दब कर, इस प्रकार विविध निमित्तों से नष्ट होने और मरने में देर ही कितनी लगती है । इस प्रकार नाशवान् संसार और प्रतिक्षण मृत्यु की ओर जाते हुए इस मानव जीवन पर मोह करना बड़ी भारी भूल है । मनुष्य सोचता है -- में भव्य भवन बनाऊँ । उच्चकोटि के वाहन, शयन, आसन और शृंगार प्रसाधनों का संग्रह करूँ । मनोहर गान, वादिन्त्र, नृत्य और रमणियों को प्राप्त कर सुखोपभोग करूँ। में महान् सत्ताधारी बनूँ । वह इस प्रकार की उधेड़बुन में ही रहता है और अचानक काल के झपाटे में आ कर मर जाता है । इस प्रकार विडम्बना से भरे इस संसार में तो क्षणभर भी नहीं रहना चाहिए ।' इस प्रकार सोचते हुए राजा विरक्त हो गया । अपने पुत्र विमलकीर्ति को राज्याधिकार सौंप कर आचार्य श्रीस्वयंभवस्वामी के समीप दीक्षित हो गया । प्रव्रज्या स्वीकार करने के बाद मुनिराज, पूर्ण उत्साह के साथ साधना करने लगे । परिणामों की उच्चता से तीर्थंकर नामकर्म को पुष्ट किया और समाधिपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर के 'आनत' नामक नौवें स्वर्ग में उत्पन्न हुए । स्वर्ग के सुख भोग कर, आयुष्य पूर्ण होने पर श्रावस्ति नगरी के 'जितारि' नाम के प्रतापी नरेश की 'सेनादेवी' नामकी महारानी की कुक्षि में उत्पन्न हुए । महास्वप्न और उत्सवादि, तीर्थंकर के गर्भ एवं जन्म कल्याणक के अनुसार हुए X । X इसका वर्णन भ० आदिनाथ के चरित्र पृ. ३६ में हुआ है । वहाँ देखना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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