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________________ भ० अजितनाथजी -- मायावी की अद्भुत कथा राजा निराश हो गया और उसकी इच्छानुसार व्यवस्था करने की आज्ञा प्रदान कर दी । महिला ने स्नान-मंजन किया । वस्त्राभूषण पहिने | वह सम्पूर्ण रूप से शृंगारित हो कर रथ में बैठ गई और पति के अंगों को भी ले लिये। रथ श्मशान भूमि की ओर चलने लगा । पीछे राजा एवं नागरिकजन पैदल चलने लगे । चिता रची गई । चिता में प्रवेश होने के पूर्व उस महिला ने राजा के दिये हुए धन का मुक्त हस्त से दान किया और सभी लोगों को प्रणाम किया । उसके बाद चिता की प्रदक्षिणा कर के उसमें बैठ गई और पति के अंगों के साथ जल गई । राजा और नागरिकजन शोकाकुल हृदय से घर लौटे । राजा सभा में बैठा था, तब वही मायावी पुरुष हाथ में तलवार और भाला ले कर सभा में उपस्थित हुआ । राजा और सभी लोग उसे देख कर चकित रह गए। वह पुरुष बोला- (8 'राजेन्द्र ! ज्योंही मैं आपके पास से गया, त्योंही मेरा उस दुष्ट से साक्षात्कार हो गया । वह यहीं मेरे पीछे आ रहा था । मैने उसे ललकारा और गर्जना के साथ हमारा युद्ध प्रारम्भ हो गया । लड़ते-लड़ते मैने कौशल से पहले उसका एक हाथ काट दिया, फिर पाँव, इस प्रकार लड़ते-लड़ते उसके छह टुकड़े कर दिये और उसके सभी अंग आपकी सभा में ही गिरे। इस प्रकार आपकी कृपा से मैने अपने शत्रु को समाप्त कर दिया । अब मैं बिलकुल निर्भय हूँ । अब मेरी पत्नी मुझे दे दीजिए, सो मैं अपने घर जा कर शान्ति से जीवन व्यतीत करूँ ।" १५३ मायावी के वचन सुन कर राजा चिंतामग्न हो कर कहने लगा--- " भद्र ! तुम्हारी पत्नी मेरे पास थी । किन्तु तुम्हारे युद्ध के परिणाम स्वरूप कटे हुए शरीर को देख कर वह समझी कि मेरा पति मारा गया है और ये हाथ आदि अंग उसी के हैं । वह शोकसागर में डूब गई और उस शरीर के साथ जल मरने को आतुर हो गई । हमने उसे बहुत समझाया, किन्तु वह नहीं मानी और उस शरीर के साथ जल गई। हम सब अभी उसे जला कर आये हैं और उसी चिन्ता में बैठे हैं। अब हम उसे कहाँ से लावें ? मुझे आश्चर्य होता है कि वे शरीर के टुकड़े तुम्हारे नहीं थे, अथवा पहले जो आया था, वह कोई दूसरा था और अब तुम दूसरे हो, क्या बात है ?" " राजन् ! आप क्या कह रहे हैं ? क्या आपकी मति पलट गई ? आप भी मेरी पत्नी के रूप पर मोहित हो कर बदल रहे हैं ? क्या यही आपका परनारी सहोदरपना है ? क्या आप भी मेरे साथ शत्रुता करने लगे हैं? यदि आप सदाचारी और निर्लिप्त हैं, तो कृपा कर मेरी पत्नी मुझे अभी दीजिए और अपनी उज्ज्वल कीर्ति की रक्षा कीजिए ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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