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________________ भ• अजितनाथजी--पेब वाहन और सगर के पूर्वभय १३६ पिता के वध से क्रोधायमान हो कर सहस्रलोचन ने पूर्ण मेघ का वध कर दिया और उसके पुत्र मेघवाहन को भी मारने के लिए तत्पर हुआ । मेघवाहन भयभीत हो कर भागा । वह सीधा भगवान् के समवसरण में आया और वन्दन-नमस्कार कर के बैठ गया। सहस्रलोचन उसके पीछे पड़ा हुआ था। उसके मन में शत्रुता उभर रही थी। वह भी पीछा करता हुआ समवसरण में आ पहुँचा । किन्तु भगवान् का समवसरण देख कर स्तब्ध रह गया। उसके वैर-भाव का शमन हुआ। उसने शस्त्र डाल दिये और भगवान् की प्रदक्षिणा कर के बैठ गया। इसके बाद चक्रवर्ती महाराज सगर ने सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान् से पूछा--" प्रभो ! पूर्णमेघ और सुलोचन के वैर होने का क्या कारण है ?" भगवान् ने कहा;-- __ "सूर्यपुर नगर में 'भावन' नाम का एक कोट्याधिपति व्यापारी था । वह अपनी समस्त सम्पत्ति अपने पुत्र हरिदास को सौंप कर धन कमाने के लिए देशान्तर चला गया। बारह वर्ष में उसने बहुत-सा धन कमा लिया । स्वदेश लौट कर वह नगर के बाहर ठहर गया। वह उत्सूकता वश अचानक रात्रि के समय अपने घर में आया और गप्त रूप से घर में प्रवेश कर के इधर-उधर फिरने लगा। हरिदास की नींद खुल गई । उसे लगा--'घर में चोर घुस गए हैं।' वह उठा और तलवार का प्रहार कर ही दिया। घायल भावन सेठ ने. देखा कि उसका पुत्र ही उसे मार रहा है, तो उसके क्रोध का पार नहीं रहा । वह अत्यंत वैर-भाव लिए हुए मर गया। जब हरिदास ने देखा कि उसके हाथ से उसका पिता ही मारा गया, तो उसे बहुत दुःख हुआ । उसने पश्चात्ताप पूर्वक अपने पिता का अंतिम संस्कार किया । कालान्तर में हरिदास भी मर गया । भव-भ्रमण करते हुए पिता का जीव पूर्णमेघ के रूप में उत्पन्न हुआ और हरिदास का जीव 'सुलोचन' हुआ। इस प्रकार इन दोनों का वैर पूर्वभव मे ही चला आ रहा है और इस भव में वैर सफल हुआ।" ___ भगवान् का निर्णय सुन कर चक्रवर्ती ने फिर पूछा ___ "इन दोनों के पुत्रों के वैर का क्या कारण है प्रभो ? और सहस्रलोचन के प्रति मेरे मन में स्नेह क्यों उत्पन्न हो रहा है ?" ---" सगर ! तुम पूर्वभव में एक सन्यासी थे । 'रम्भक' तुम्हारा नाम था। तुम्हारी दान देने में विशेष रुवि और प्रवृति थी। तुम्हारे 'शशि' और 'आवली' नाम के दो शिष्य थे। आवली अपनी अतिशय विनम्रता के कारण तुम्हें विशेष प्रिय था । उसने एक गाय मोल ली। किन्तु शशि ने गाय बेचने वाले को फुसला कर वह गाय खुद ने मूल्य दे कर ले ली। इस पर शशि और आव ठो में झगड़ा हो गया । दोनों खूब लड़े और अन्त में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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