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भ० अजितनाथजी--तीर्थकर और चक्रवर्ती का जन्म
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माघ-शुक्ला अष्टमी की रात्रि को महारानी विजयादेवी की कुक्षि से एक लोकोत्तम पुत्र-रत्न का जन्म हुआ । सर्वत्र दिव्य प्रकाश फैल गया। नारक जीव भी कुछ समय के लिए सभी दुःखों को भूल कर सुख का अनुभव करने लगे । छप्पन कुमारी देविये, चौसठ इंद्र-इन्द्रानियाँ, देव और देवांगनाओं ने भारत-भूमि पर आ कर तीर्थकर का जन्मोत्सव किया।
प्रभु के जन्म के थोड़ी देर बाद ही युवराज्ञी वैजयंती ने भी पुत्र-रत्न को जन्म दिया। पुत्र और भतीजे के जन्म की बधाई पा कर महाराज जितशत्रु की प्रसन्नता का पार नहीं रहा। उन्होंने बधाई देने वाले का पीढ़ियों का दारिद्र दूर कर मालामाल कर दिया और दासत्व से मुक्त भी । उत्सवों की धूम मच गई । शुभ मुहूर्त में पुत्रों का नामकरण हुआ। महारानी विजयादेवी के गर्भ के दिनों में महाराजा के साथ पासे के खेल में सदा महारानी की ही जीत होती। वह महाराज से अजित ही रही। इस जीत को गर्भ का प्रभाव मान कर बालक का नाम 'अजित' रखा गया। यही अजित आगे चल कर भगवान् ‘अजितनाथ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। युवराज के पुत्र का नाम 'सगर' रखा, जो दूसरा चक्रवर्ती हुआ।
सभी जिनेश्वर पूर्व-भव से ही तीन ज्ञान साथ ले कर माता के गर्भ में आते हैं। तीर्थकर नामकर्म की महान् पुण्य-प्रकृति का यह नियम है। श्री अजितकुमार भी तीन ज्ञान से युक्त थे। इसलिए उन्हें अध्यापकों से पढ़ाने और कलाएँ सिखाने की आवश्यकता नहीं थी। किन्तु सगरकुमार को विद्याध्ययन कराया जाने लगा। सगरकुमार की बुद्धि भी तीव्र थी । वे थोड़े ही दिनों में शब्द-शास्त्रों को पढ़ गए और सभी कलाओं में पारंगत हो गए। विद्याध्ययन करते हुए कुमार के मन में जो जिज्ञासा उत्पन्न होती, उनका समाधान करना उपाध्याय के लिए कठिन होता, किन्तु श्री अजितकुमार उनका ऐसा समाधान करते कि जिससे पूर्ण संतोष हो जाता और विशेष समझने को मिलता, तथा पुनः पूछने --समझने की इच्छा होती।
दोनों कुमार बालवय को पार कर यौवन अवस्था को प्राप्त हुए। वे वज्र-मषभनाराच संहनन, समचतुरस्र संस्थान, स्वर्ण के समान कान्ति से सुशोभित और अनेक उत्तम लक्षणों से युक्त थे । श्री अजितकुमार का सैकड़ों राजकन्याओं के साथ लग्न किया गया और सगरकुमार का भी विवाह किया गया। उदय में आये हुए भोग-फल देने वाले कर्मों का विचार कर के श्री अजितकुमार को लग्न करना पड़ा । वे रोग के अनुसार औषधी के समान भोग प्रवृत्ति करने लगे । जब श्री अजितकुमार अठारह लाख पूर्व के हुए, तब महाराजा जितशत्रु ने संसार से विरक्त हो कर मोक्ष--पुरुषार्थ साधने की इच्छा से पुत्र को राज्यभार
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