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________________ भ. अजितनाथ जी---वैराग्य का निमित्त १२१ एक वृक्ष के नीचे बैठ कर स्वाध्याय में रम रहा था, तो कोई एकाग्रतापूर्वक अनुप्रेक्षा कर रहा था। कुछ संत आपस में तत्त्व-चर्चा कर रहे थे । एक वृक्ष के नीचे, एक उपाध्याय मुनिवर, कुछ साधुओं को श्रुत का अभ्यास करा रहे थे । एक ओर संत गोदोहासन से बैठ कर ध्यान कर रहे थे, तो कई विविध आसनों से तप कर रहे थे। राजा ने आचार्यश्री की वन्दना की और आचार्यश्री की अवग्रह-भूमि छोड़ कर विनयपूर्वक सामने बैठ गया। आचार्यश्री ने धर्मोपदेश दिया। राजा की वैराग्य भावना बढ़ी। उसने निवेदन किया; __ "भगवन् ! संसार अनन्त दुःखों की खान है । दुःखानुभव करते हुए भी जीवों को वैराग्य उत्पन्न नहीं होता, फिर आप संसार से विरक्त कैसे हुए ? ऐसा कौन-सा निमित्त उपस्थित हुआ जिससे आप निग्रंथ बने ? आचार्य अपनी प्रव्रज्या का निमित्त बताते हुए बोले-" राजन् !" "वैराग्य के निमित्तों से तो सारा संसार भरा हुआ है । जिधर देखो, उधर वैराग्य के निमित्त उपस्थित हैं। इनमें से प्रत्येक विरागी को आने योग्य निमित्त मिल जाता है। मेरे विरक्त होने का निमित्त इस प्रकार बना।" __“ मैं एक बार सेना ले कर दिग्विजय करने निकला । मार्ग में एक अत्यन्त सुन्दर बगीचा मेरे देखने में आया । गहरी छाया, सुगन्धित एवं सुन्दर पुष्प, अनेक प्रकार के उत्तम फल, स्वच्छ और मीठे पानी के झरने, लतामण्डपों और कुञ्जों से वह बगोचा रमणीय एवं मनोहर था। वह मुझे नन्दन वन या भद्रशाल वन जैसा लगा। मैने उस बगीचे में आराम किया और उसकी उत्तमता पर मोहित हो गया। किन्तु जब में दिग्विजय कर के पुनः उसी रास्ते से लौटा और उस बगीचे के पास आया, तो देखता हूँ कि उसका तो सारा रूप ही पलट चुका था । बगीचे की समस्त शोभा एवं सुन्दरता नष्ट हो चुकी थी। वह एकदम सूख कर नष्ट हो चुका था। उसमें हरियाली और छाया का नाम ही नहीं रहा था। सूखे हुए वृक्षों के दूंठ, पत्तों के ढेर, मरे हुए पक्षियों और सर्पादि की दुर्गन्ध से वह विरूप एवं घृणास्पद हो रहा था। यह देख कर मेरे मन में विचार हुआ । मैने सोचा--सभी संसारी जीवों की ऐसी ही दशा होती है ।" । "जो पुरुष, कामदेव के समान अत्यंत सुन्दर दिखाई देता है, वही कालान्तर में भयंकर रोग होने पर एकदम करूप हो जाता है। जिसकी वाणी सुभाषित एवं वहस्पति के समान प्रखर विद्वत्तापूर्ण है, वही कभी जिव्हा के स्खलित हो जाने से गूंगा हो जाता है। जिसकी चाल, गज और वृषभ के समान प्रशस्त है, वही कभी वात रोग या आघात आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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