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________________ तीर्थकर चरित्र - o-ers-e---4404 मस्तक पर भारी आघात किया। इस आघात के कारण बाहुबली जानु तक भूमि में धंस गए। वे मस्तक धुनाने लगे। उस प्रहार से वह दंड भो टूट कर टुकड़े-टुकड़े हो गया। थोड़ी देर में सावधान हो कर वे भूमि में से बाहर निकले और अपने दंड को एक हाथ में ले कर घुमाने लगे और घुमाते-घुमाते भरतेश्वर के मस्तक पर ठोक मारा । इस प्रहार से भरतेश्वर अपने कंठ तक भूमि में धंस गए । चारों ओर हाहाकार हो गया। भरतेश्वर मूच्छित हो गए। थोड़ी देर बाद सावधान हो कर वे बाहर निकले। इस प्रकार हार-पर-हार होती देख कर भरतेश्वर ने सोचा+--अब मेरी जीत की कोई संभावना नहीं रही । कदाचित् मेरे साधे हुए छह खंड बाहुबली के लिए हों और वह चक्रवर्ती होने वाला हो ? एक काल में दो चक्रवर्ती तो नहीं सकते । यह तो ऐसा हो रहा है कि जैसे मामूली देव, इन्द्र को जीत ले और साधारण राजा चक्रवर्ती को जीत ले । कदाचित् बाहुबली ही चक्रवर्ती होगा।" इस प्रकार विचार कर रहे थे कि यक्ष-देवों ने भरतेश्वर के हाथ में चक्र-रत्न दिया। भरतेश्वर ने उस चक्र रत्न को घुमाया । भरत को चक्र घुमाते हुए देख कर बाहबली ने विचार किया--" भरत अपने को आदिनाथ भगवान् का पुत्र मानता है, किन्तु वह दंड-युद्ध के उत्तर में चक्र चला रहा है, क्या यह क्षत्रियों की युद्ध-नीति है ? देवताओं के सामने की हुई उत्तम युद्ध-नीति की प्रतिज्ञा का निर्वाह भी उसने नहीं किया । धिक्कार है--उसे । मैं उसके चक्र को दण्ड प्रहार से चूर-चूर करूँगा।" इस प्रकार विचार करते रहे। इतने में भरत का चलाया हुआ चक्र बाहुबली के पास आया और उनकी प्रदक्षिणा कर के वापिस भरतेश्वर के पास लौट गया। क्योंकि चक्र-रत्न सामान्य एवं सगोत्री पुरुष पर नहीं चलता, तो ऐसे चरम-शरीरी पुरुष पर कैसे चले ? + इस प्रकार चक्रवर्ती की हार होने की बात विचारणीय लगती है। यदि यह सत्य है, तो इसको भी अछेरा-आश्चर्यभूत अवश्य बताना था। श्रीकृष्ण के अमरकंका गमन को आश्चर्य रूप माना तो यहाँ तो चक्रवर्ती की भारी पराजय और पराजय-पर-पराजय है। इसे आश्चर्य के रूप में क्यों नहीं माना ? यह घटना 'सुभम' और 'ब्रह्मदत्त' जैसे पापानबन्धी-पूण्य के धनी और नरक जाने वाले के जीवन से सम्बन्धित नहीं, किन्तु पुण्यानुबन्धी-पुण्य के स्वामी और मोक्ष पाने वाले भरतेश्वर की अत्यन्त पराजय के रूप में हो कर भी आश्चर्य के रूप में नहीं आई। यह विचार की बात है। उदय की प्रबलता और विचित्रता के आगे कुछ असम्भव तो नहीं है, पर आगमों में खास कर 'जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति मत्र' में-जहाँ भरतेश्वर की दिग्विजय का विस्तृत वर्णन है, वहाँ इन पराजयों को बताने वाला एक भी शब्द नहीं हैं। इसीलिए विचार होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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