________________
६२
. तीर्थकर चरित्र
कोई कहता था--"जब युद्ध नहीं करना था, तो चढ़ाई कर के आये ही क्यों ?
दूसरा कहता था --- किसी कायर मन्त्री ने महाराज को ऐसी विपरीत सलाह दी होगी।"
तीसरा कहता था--"अब इन शस्त्रों को समुद्र में डूबो दो।"
चौथे ने हताश हो कर कहा--'हा, मेरी सारी आशा ही नष्ट हो गई। आज अपना पराक्रम दिखाने का अवसर आ गया था, वह दुर्देव ने छिन लिया।"
पाँचवें ने कहा--"हमारी रण-विद्या और युद्धाभ्यास व्यर्थ गया। अब इसकी आवश्यकता ही नहीं रही।"
सैनिकगण यों अनेक प्रकार से अपने मन की भड़ास निकालते और रोष व्यक्त करते हए लौट रहे थे । सेनाधिकारियों के लिए उन्हें शान्त करना कठिन हो रहा था ।
भरतेश्वर के सेनाधिकारियों को, द्वंद्व-युद्ध में भरतेश्वर के विजयी होने में सन्देह हुआ । वे परस्सर कहने लगे; --
" सम्राट महाबली हैं, किंतु बाहुबलीजी तो अद्वितीय बलवान् हैं। उनसे इन्द्र भी नहीं जीत सकता। ऐसी दशा में सम्राट को दंद्र यद्ध करने देना हमारे लिए दुःखदायक होगा। सम्राट ने देवों की बात मान कर अच्छा नहीं किया।"
भरतेश्वर के बल का परिचय
इस प्रकार सेनाधिकारियों को परस्पर वार्तालाप करते देख कर भरतेश्वर उनका आशय समझ गए । उन्होंने सेनाधिकारियों को अपने पास बुलाया और कहने लगे; ---
“वीर हितैषियों ! जिस प्रकार अन्धकार का नाश करने में सूर्य की किरणें आगे रहती है, उसी प्रकार शत्रुओं को नष्ट करने में तुम लोग मुझसे आगे रहते हो । जिस प्रकार गहरी खाई में पड़ा हुआ हाथी, पहाड़ी किले तक नहीं पहुंच सकता, उसी प्रकार तुम योद्धाओं के रहते कोई भी शत्रु मुझ तक नहीं आ सकता । तुम्हारे हृदय में उद्भूत मेरे-प्रति हित-कामना का मैं आदर करता हूँ। किन्तु तुमने कभी मुझे युद्ध करते देखा नहीं हैं । तुम्हें मेरे बल कापरिचय नहीं है। इसीलिए तुम्हें सन्देह हो रहा है । अब तुम सभी एकत्रित हो कर मेरे बल को देख लो, जिससे तुम्हारी शंका दूर हो जाय।"
भरतेश्वर ने एक गहरा खड्डा खुदवाया और उसके किनारे पर खुद बैठ गए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org