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________________ पंचसंग्रह : ६ इस प्रकार की '-'रेखायुक्त समयस्थानों में परस्पराक्रान्त प्ररूपणा करना चाहिये । जैसे चौथे जघन्यस्थान की विशुद्धि कहकर प्रथम स्थान की उत्कृष्टविशुद्धि फिर प्रथम स्थान की उत्कृष्ट विशुद्धि से पांचवें स्थान की जघन्य विशुद्धि कहना चाहिये । अर्थात् एक की उत्कृष्ट दूसरे की जघन्य इस क्रम से शेष संख्यातवें भाग के उत्कृष्ट स्थानों को छोड़कर कहना चाहिये ! १६ इस प्रकार से यथाप्रवृत्तकरण का स्वरूप जानना चाहिये | अब क्रमप्राप्त दूसरे करण अपूर्वकरण की स्वरूप व्याख्या करते हैं । अपूर्वकरण की विशुद्धि स्वरूप व्याख्या जा उक्कोसा पढमे तीसेणन्ता जहण्णिया बीए । करणे तीए जेट्ठा एवं जा सव्वकरणंपि ॥ १० ॥ शब्दार्थ - जा - जो, उक्कोसा -- उत्कृष्ट, पढमे -- प्रथम समय में, तीसेणंता --- उससे अनन्तगुण, जहणिया - जघन्य, बीए - दूसरे समय की, करणे --- करण में, तीए - उसी के जेट्ठा - उत्कृष्ट एवं — इस प्रकार, जा - पर्यन्त, सव्वकरणं पि- सभी करणों में भी । , गाथार्थ - अपूर्वकरण के प्रथम समय में जो उत्कृष्ट विशुद्धि है उससे दूसरे समय की जघन्य विशुद्धि अनन्तगुण होती है, उससे उसी ( दूसरे ) समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है। इसी प्रकार सम्पूर्ण करण पर्यन्त जानना चाहिये । विशेषार्थ - यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में जो उत्कृष्ट विशुद्धि होती है, उससे अपूर्वकरण के प्रथम समय की जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। उससे उसी प्रथम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है, उससे दूसरे समय की जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है, उससे उसी समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है, उससे तीसरे समय की जघन्य विशुद्धि अनन्तगुण होती है, उससे भी उसी तीसरे समय की उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुण होती है। इस प्रकार प्रत्येक समय में जघन्य-उत्कृष्ट विशुद्धि वहाँ तक कहना चाहिये यावत् अपूर्वकरण सम्पूर्ण हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only , www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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