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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८३
१११ स्थापित करता है कि पहले समय में जो किट्टियां उदय में आयें वे किट्टिकरणाद्धा काल में के पहले और अन्तिम समय में की गई किट्टियां न हों तथा चरम समय में की गई किट्टियों का निचला असंख्यातवां भाग और पहले समय की गई किट्टियों के ऊपर का असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष किट्टियों की उदीरणा करता है। पहले और अन्तिम समय की किट्टियां सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के प्रथम समय में उदय को प्राप्त नहीं होती हैं किन्तु इस प्रकार से उदीरणा द्वारा उदय को प्राप्त होती हैं । तथा
गेण्हन्तो य मुयन्तो असंखभागं तु चरिमसमयंमि ।
उवसामिय बीयठिइं उवसंतं लभई गुणठाणं ॥३॥ शब्दार्थ-- गेहन्तो-हग करता, य-और, मुयन्तो-छोड़ता हुआ, असंखभाग-असंख्यातवें भाग को, तु-और, चरिमसमयंमि-चरमसमय में, उवसामिय-उपशमित करता है, बी ठिई-द्वितीयस्थिति को, उवसंतउपशान्तमोह, लभइ-प्राप्त करता है, गुणठाणं-गुणस्थान ।
गाथार्थ-असंख्यातवें भाग को ग्रहण करता और छोड़ता हुआ चरमसमय पर्यन्त जाता है। चरम समय में द्वितीय स्थिति को उपशमित करके उपशान्तमोहगुणस्थान प्राप्त करता है।
विशेषार्थ-सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के दूसरे समय में उदयप्राप्त किट्टियों के असंख्यातवें भाग को छोड़ता है। क्योंकि उसकी किट्टियां उपशान्त हो जाती हैं, जिससे उदय में नहीं आती हैं और १ यहाँ उदयप्राप्त किट्टियों के असंख्यातवें भाग को उपशमित करता है,
यह संकेत किया है । परन्तु प्रश्न है कि उदयप्राप्त किट्टियां कैसे उपशमित हों ? क्योंकि उदयप्राप्त किट्टियां तो प्रथम समय की किट्टियां हैं । प्रथमस्थिति को तो उदय-उदीरणा द्वारा भोगता है यह बताया है तो यहाँ उपशम हो यह कैसे सम्भव है ?
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