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पड़ी। इसी बीच गुरुदेवश्री मानमलजी म. का वि. सं. १६७४ माघ वदी ७ को जोधपुर में स्वर्गवास हो गया । वि. सं० १९७५ अक्षय तृतया को पूज्य स्वामी श्री बुधमलजी महाराज के कर कमलों से आपने दीक्षारत्न प्राप्त किया ।
आपकी बुद्धि बड़ी विचक्षण थी। प्रतिभा और स्मरणशक्ति अद्भुत थी। छोटी उम्र में ही आगम, थोकड़े, संस्कृत, प्राकृत, गणित, ज्योतिष, काव्य, छन्द, अलंकार, व्याकरण आदि विविध विषयों का आधिकारिक ज्ञान प्राप्त कर लिया । प्रवचनशैली की ओजस्विता और प्रभावकता देखकर लोग आपश्री के प्रति आकृष्ट होते और यों सहज ही आपका वर्चस्व, तेजस्व बढ़ता गया ।
वि. सं० १९८५ पौष वदि प्रतिपदा को गुरुदेव श्री बुधमलजी म. का स्वर्गवास हो गया । अब तो पूज्य रघुनाथजी महाराज की संप्रदाय का समस्त दायित्व आपश्री के कंधों पर आ गिरा। किन्तु आपश्री तो सर्वथा सुयोग्य थे । गुरु से प्राप्त संप्रदाय - परम्परा को सदा विकासोन्मुख और प्रभावनापूर्ण ही बनाते रहे । इस दृष्टि से स्थानांगसूत्रवर्णित चार शिष्यों ( पुत्रों) में आपको अभिजात ( श्रेष्ठतम ) शिष्य ही कहा जायेगा, जो प्राप्तऋद्धि-वैभव को दिन दूना रात चौगुना बढ़ाता रहता है |
वि. सं. १६६३, लोकाशाह जयन्ती के अवसर पर आपश्री को मरुधरकेसरी पद से विभूषित किया गया । वास्तव में ही आपको निर्भीकता और क्रान्तिकारी सिंह गर्जनाएँ इस पद की शोभा के अनुरूप ही थीं ।
स्थानकवासी जैन समाज की एकता और संगठन के लिए आपश्री के भगीरथ प्रयास श्रमण संघ के इतिहास में सदा अमर रहेंगे । समयसमय पर टूटती कड़ियां जोड़ना, संघ पर आये संकटों को दूरदर्शिता के साथ निवारण करना, संत-सतियों की आन्तरिक व्यवस्था को सुधारना, भीतर में उठती मतभेद की कटुता को दूर करना - यह आपश्री
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