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________________ १४ पंचसंग्रह : ७ का संक्रम घटित नहीं हो सकता है। किन्तु अन्तरकरण से अन्यत्र अर्थात् अन्तरकरण करने से पूर्व इन पांच प्रकृतियों का अनुक्रम अथवा व्युत्क्रम से-बिना क्रम के इस तरह दोनों प्रकार से संक्रम प्रवर्तित होता है। यानि क्रोध का लोभ में और लोभ का क्रोध में भी संक्रम हो सकता है। इसका फलितार्थ यह हुआ कि उक्त प्रकृतियों के सिवाय शेष प्रकृतियों का अन्तरकरण करने के बाद या पहले क्रम अथवा अक्रम दोनों प्रकार से भी संक्रम होता है। इस प्रकार से संक्रम विषयक अपवादों का निर्देश करने के बाद अब पतद्ग्रह सम्बन्धी अपवादों का कथन करते हैं। पतग्रह विषयक अपवाद मिच्छे खविए मोसस्स नत्थि उभए वि नत्थि सम्मस्स । उज्वलिएसु दोसु, पडिग्गहया नस्थि मिच्छस्स ॥६॥ दुसुतिसु आवलियास समयविहीणास आइमठिईए। संसासु संजलणयाण न भवे पडिग्गहया ॥७॥ शब्दार्थ--मिन्छे--मिथ्यात्वमोहनीय का, खविए-क्षय होने पर, मीसस्स-मिश्र मोहनीय की, नत्थि नहीं रहती है, उभए-दोनों का क्षय होने पर, वि-भी, नत्थि-नहीं होती है, सम्मस्स-सम्यक्त्वमोहनीय की, उव्वलिएसु-उद्वलित होने पर, दोसु-दोनों की, पडिग्गहया-पतद्ग्रहता, नत्थि-नहीं रहती, मिच्छस्स-मिथ्यात्व की। दुसुतिसु-दो अथवा तीन, आवलियासु-आवलिका, समयविहीणासुसमयन्यून, आइमठिइए-आदि-प्रथम स्थिति में, सेसासु-शेष रहने पर, पुसंजलणयाण-पुरुषवेद और संज्वलन की, न भवे-नहीं होती, पडिग्गहया--पतद्ग्रहता। गाथार्थ-मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय होने पर मिश्रमोहनीय की पतद्ग्रहता नहीं रहती है। मिथ्यात्व और मिश्र दोनों का क्षय होने के बाद सम्यक्त्वमोहनीय की पतद्ग्रहता नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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