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संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३, ४
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में संक्रमित होती हैं, तब क्रमशः प्रकृतिस्थानसंक्रम और प्रकृति स्थानपतद्ग्रह कहलाता है । इसका तात्पर्य यह है कि जब एक प्रकृति संक्रांत होती हो तब प्रकृतिसंक्रम तथा अनेक पंक्रांत होती हों तब प्रकृतिस्थानसंक्रम और संक्रम्यमाण प्रकृति का आधार जब एक प्रकृति हो तब प्रकृतिपतद् ग्रह और अनेक हों तब प्रकृतिस्थानपतद्ग्रह कहलाता है ।
उसमें भी जब बहुत सी प्रकृतियां एक में संक्रांत हों, जैसे कि एक यशः कीर्तिनाम में नामकर्म की शेष प्रकृतियां, तब वह प्रकृतिस्थानसंक्रम कहलाता है और जब बहुत सी प्रकृतियों में एक प्रकृति संक्रमित हो, जैसे कि मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय में मिथ्यात्वमोहनीय का संक्रम हो तब वह प्रकृतिस्थानपतद्ग्रह कहलाता है तथा जब अनेक प्रकृतियों में अनेक प्रकृतियां संक्रमित हों, जैसे कि ज्ञानावरण की पांचों प्रकृतियां पांचों प्रकृतियों में संक्रमित हों तब वह प्रकृतिस्थानसंक्रम और प्रकृतिस्थानपतद्ग्रह कहलाता है ।
यथार्थतः तो यद्यपि अनेक प्रकृतियां संक्रमित होती हैं और पतद्ग्रह भी अनेक प्रकृतियां होती हैं, लेकिन जब संक्रम और पतद्ग्रह रूप में एक-एक प्रकृति के संक्रम की और एक-एक प्रकृतिरूप पतद्ग्रह की विवक्षा की जाये तब उसे प्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिपतद्ग्रह कहा जाता है, ऐसा समझना चाहिये। ऐसा होने से आगे भी जहाँ एक - एक प्रकृतिसंक्रम और एक-एक प्रकृतिरूप पतद्ग्रह का विचार करेंगे वहाँ प्रकृतिस्थानसंक्रम और प्रकृतिस्थानपतग्रह का सद्भाव होने पर भी उसका प्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिपतद्ग्रह रूप में प्रतिपादन किया जाना विरोधी नहीं होगा । जैसे कि ज्ञानावरण की पांचों प्रकृतियों का बंध दसवें गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त होता है जिससे पांचों प्रकृतियां पतद्ग्रहरूप हैं और संक्रमित होने वाली भी पांचों हैं । मतिज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरणादि चार में संक्रमित होता है । इस प्रकार प्रत्येक समय ज्ञानावरण की पांचों प्रकृतियां संक्रमरूप और पतद्ग्रहरूप होने पर भी जब एक -एक के संक्रप की और एक-एक प्रकृतिरूप पतद्ग्रह की विवक्षा की जाये, जैसे कि मतिज्ञानावरण
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