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पंचसंग्रह : ७
संक्रम का यह लक्षण १. प्रकृतिसंक्रम २. स्थितिसंक्रम ३. अनुभाग (रस) संक्रम और ४. प्रदेशसंक्रम इन चारों में सामान्य रूप से समझना चाहिये । जिससे संक्रम का सामान्य लक्षण यह हुआ—अन्य स्वरूप में वर्तमान प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेशों को बंधती हुई स्वजातीय प्रकृति आदि रूप करना तथा मिथ्यात्व और मिश्रमोहनीय के नहीं बंधने पर भी मिश्र और सम्यक्त्वमोहनीय रूप में करना संक्रम कहलाता है। १. प्रकृतिसंक्रम
इस प्रकार संक्रम का सामान्य लक्षण कहने के बाद अब जिन प्रकृतियों में संक्रम होता है उनका संज्ञान्तर-अन्य नाम कहते हैं
संकमइ जासु दलियं ताओ उ पडिग्गहा समक्खाया।
जा संकमआवलियं करणासज्झं भवे दलियं ॥२॥ शब्दार्थ-संकमइ-संक्रमित होते हैं, जासु-जिनमें, दलियं-दलिक, ताओ उ-वे, पडिग्गहा-पतद्ग्रह, समक्खाया-कही गई हैं, जा-यावत्, तक, संकमावलियं---संक्रमावलिका, करणासज्झं-करणासाध्य, भवे-होते हैं, दलियं-दलिक।
गाथार्थ-जिन प्रकृतियों में दलिक संक्रमित होते हैं, वे प्रकृतियां पतद्ग्रह कहलाती हैं। संक्रांत दलिक संक्रमावलिका पर्यन्त करणासाध्य होते हैं ।
विशेषार्थ-जिन प्रकृतियों में अन्य प्रकृतियों के दलिक आकर संक्रांत होते हैं, उन प्रकृतियों की संज्ञाविशेष का तथा संक्रम कब होता है ? यह संकेत गाथा में किया गया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है___ बंधती हुई जिन कर्मप्रकृतियों में संक्लेश अथवा विशुद्धि रूप जीव के वीर्यव्यापार रूप असाधारण कारण के द्वारा बंधती हुई अथवा नहीं बंधती हुई कर्मप्रकृतियों के सत्ता में विद्यमान दलिक-कर्मपरमाणुसंक्रांत होते हैं, वे प्रकृतियां पतद्ग्रह कहलाती हैं। पतद्ग्रह का
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