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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७
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किस स्थितिस्थान में के रसस्पर्धकों की अपवर्तना होती है और उनका निक्षेप कहाँ होता है ? अब यह स्पष्ट करते हैं
प्रथम स्पर्धक की अपवर्तना नहीं होती, दूसरे स्पर्धक की, तीसरे की यावत् आवलिका मात्र स्थितिगत स्पर्धकों की अपवर्तना नहीं होती परन्तु उनके ऊपर के स्थानगत स्पर्धक की अपवर्तना होती है । उसमें जब उदयावलिका से ऊपर के समयमात्र स्थितिगत स्पर्धक की अपवर्तना होती है तब उसका आवलिका के समय न्यून दो तृतीयांश स्थितिस्थानगत स्पर्धकों को उलांघकर उदयस्थान से लेकर आवलिका के समयाधिक एक तृतीयांश स्थितिस्थानगत स्पर्धकों में निक्षेप होता है। जब उदयावलिका से ऊपर के दूसरे समय मात्र स्थितिगत स्पर्धक की अपवर्तना होती है तब पूर्वोक्त आवलिका के समय न्यून दो तृतीयांश भाग प्रमाण अतीत्थापना समय मात्र स्थितिगत स्पर्धक द्वारा अधिक समझना चाहिये और निक्षेप के स्पर्धक तो उतने ही होते हैं। इस प्रकार समय-समय की वृद्धि से अतीत्थापना में वहाँ तक वृद्धि करनी चाहिये यावत् आवलिका पूर्ण हो। तत्पश्चात् अतीत्थापना सर्वत्र आवलिका प्रमाण स्थितिस्थानगत स्पर्धक रूप ही रहती है और निक्षेप बढ़ता है।
इस प्रकार से निव्यार्घातभाविनी अपवर्तना का स्वरूप जानना चाहिये।
व्याघात में समयमात्र स्थितिगत स्पर्धक द्वारा न्यून अनुभाग कंडक अतीत्थापना जानना चाहिये। कंडक का प्रमाण और समयन्यूनता का कारण आदि जैसा पहले स्थिति की अपवर्तना में कहा गया है, तदनुसार यहाँ भी समझ लेना चाहिये।
अब पूर्वोक्त कथन को अधिक विशेष रूप से स्पष्ट करने के लिये आचार्य गाथा सूत्र कहते हैं
अइत्थावणाइयाओ सग्णाओ दुसुवि पुव्ववुत्ताओ। कितू अणंतभिलावेण फडडगा तासु वत्तव्वा ॥ १७ ॥
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