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________________ २७६ पंचसंग्रह : ७ शब्दार्थ-चरिम-चरम स्पर्धक, नोवट्टिज्जइ--उद्वर्तना नहीं होती, जाव-यावत्, अणंताणि-अनन्त, फड्डगाणि-स्पर्धक, तओ--उससे, उस्सक्किय-नीचे उतरकर, उव्वट्टइ-उद्वर्तना होती है, उदया--उदय समय से, ओवट्टणा-अपवर्तना, एवं-इसी प्रकार । गाथार्थ-चरम स्पर्धक की उद्वर्तना नहीं होती, यावत् अनन्त स्पर्धकों की उद्वर्तना नहीं होती, किन्तु नीचे उतरकर समय मात्र स्थितिगत स्पर्धक की उद्वर्तना होती है। उदय समय से लेकर अनुभाग की अपवर्तना स्थिति-अपवर्तना के समान होती है। विशेषार्थ-चरम अनुभाग स्पर्धक की, द्विचरम स्पर्धक की, त्रिचरम स्पर्धक की उबलना नहीं होती है। इस प्रकार चरम स्पर्धक से लेकर यावत् अनन्त स्पर्धकों की उद्वर्तना नहीं होती है । यानि सत्ता जितनी स्थिति का बंध होता हो तब, या सत्ता से अधिक स्थिति का बंध होता हो तब जिस स्थिति की उद्वर्तना होती है, उस स्थितिस्थान में रहे हुए रसस्पर्धकों-दलिकों के रस की भी उद्वर्तना होती है तथा उद्वर्त्यमान स्थिति के दलिकों का जहाँ निक्षेप होता है, उसमें उद्वर्त्यमान रस स्पर्धकों का भी निक्षेप होता है। अर्थात् उसके समान रस वाले होते हैं। इस नियम के अनुसार जैसे स्थिति की उद्वर्तना में व्याघात के अभाव में ऊपर के स्थान से आवलिका के असंख्यातवें भाग और आवलिका प्रमाण स्थानों की उद्वर्तना नहीं होती, उसी प्रकार उतने स्थितिस्थानों में के दलिक के रस स्पर्धकों की भी उद्वर्तना नहीं होती है। तात्पर्य यह कि सर्वोपरितन आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति रूप जो निक्षेप है उसका तथा उसके नीचे के अतीत्थापनावलिका प्रमाण जो स्थितिस्थान हैं, उनके रसस्पर्धक की उद्वर्तना तथास्वभाव से जीव द्वारा नहीं की जाती है। परन्तु उसके नीचे के समय मात्र स्थितिगत जो स्पर्धक हैं, उनकी उद्वर्तना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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