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________________ २५७ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३ समयाधिक आवलिका का असंख्यातवाँ भाग निक्षेप का विषयरूप होता है, जब उसकी नीचे की तीसरी स्थिति की उद्वर्तना होती है तब दो समय अधिक आवलिका का असंख्यातवाँ भाग निक्षेप का विषयरूप होता है । यहाँ प्रत्येक स्थान पर अतीत्थापना स्थितियां आवलिका प्रमाण ही रहती हैं, किन्तु निक्षेप बढ़ता है और इस तरह निक्षेप की विषयरूप स्थितियों में समय-समय की वृद्धि होते वहाँ तक जानना चाहिये कि यावत् उत्कृष्ट हो जाये। अब यह स्पष्ट करते हैं कि उत्कृष्ट निक्षेप कितना होता हैसमयाधिक आवलिका और आबाधा हीन सम्पूर्ण कर्मस्थिति यह उत्कृष्ट निक्षेप है। वह इस प्रकार- बंधती स्थिति की अबाधा प्रमाण स्थिति की उद्वर्तना नहीं होती किन्तु उससे ऊपर की स्थिति की उद्वर्तना होती है। इसलिये जब अबाधा से ऊपर रही हुई स्थिति की उद्वर्तना होती है तब उस स्थितिस्थान के दलिक का निक्षेप अबाधा से ऊपर के स्थितिस्थानों में होता है, अबाधा के अन्दर के स्थितिस्थानों में नहीं होता है। क्योंकि जिस स्थितिस्थान की उद्वर्तना होती है उसके दलिक का निक्षेप जिस स्थिति की उद्वर्तना होती है उससे ऊपर के स्थानों में ही होता है। उसमें भी जिस स्थिति की उद्वर्तना होती है उससे ऊपर के स्थितिस्थान से लेकर आवलिका प्रमाण स्थिति का अतिक्रमण होने के बाद ऊपर की सभी स्थितियों में दलिक निक्षेप होता है। जिससे अतीत्थापनावलिका और जिस स्थिति की उद्वर्तना होती है, उस समय प्रमाण स्थिति और अबाधा को छोड़कर शेष संपूर्ण कर्मस्थिति उत्कृष्ट दलनिक्षेप की विषयरूप होती है। ___ अतीत्थापनारूप आवलिका उद्वर्त्यमान समयप्रमाण स्थिति और अबाधाकाल को ग्रहण न करने का कारण यह है कि जितने स्थितिस्थानों का अतिक्रमण करने के बाद दलिक निक्षेप किया जाता है, उसे अतीत्थापना कहते हैं। कम-से-कम भी एक आवलिका को उलांघने के बार ही दलनिक्षेप होता है, इसलिये उस एक आवलिका को अतीत्थापना कहते हैं और उसमें दलनिक्षेप न होने से उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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