________________
संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १
कहलाती है । क्योंकि उत्कृष्ट, मध्यम या जघन्य अबाधाप्रमाण सत्तागत स्थिति को छोड़कर ऊपर की स्थिति की उद्वर्तना होती है, इसलिये उतनी स्थिति अतीत्थापना कहलाती है । जघन्य अबाधाप्रमाण जघन्य अतीत्थापना से भी अल्प जो अतीत्थापना है वह आवलिकाप्रमाण है ।
२४६
उक्त कथन का तात्पर्य इस प्रकार है- उद्वर्तना का संबंध बंध से है । अतएव जितनी स्थिति बंधे, सत्तागत स्थिति उतनी बढ़ती है । बध्यमान प्रकृति की जितनी स्थिति बंधती है उसकी जितनी अबाधा हो, उसके तुल्य या उससे हीन जिसकी बंधावलिका बीत गई है, वैसी उस कर्म की ही पूर्वबद्ध स्थिति की उद्वर्तना नहीं होती है । यानि अबाधाप्रमाण उस सत्तागत स्थिति को वहाँ से उठाकर बंधने वाली उसी प्रकृति की अबाधा से ऊपर की स्थिति में प्रक्षेप नहीं किया जाता है । क्योंकि वह स्थिति अबाधा के अन्तः प्रविष्ट है ।
यहाँ स्थिति को उठाकर अन्यत्र प्रक्षिप्त करने का तात्पर्य उसउस स्थितिस्थान में भोगने योग्य दलिकों को उठाकर अन्यत्र निक्षिप्त नहीं किया जाता है, यह है ।
अबाधा से ऊपर जो स्थिति है, उसकी अंतिम स्थितिस्थान पर्यन्त उद्वर्तना होती है । इस प्रकार अबाधा के अंदर की सभी स्थितियां उद्वर्तना की अपेक्षा अनतिक्रमणीय हैं । यानि अबाधाप्रमाण सत्तागत स्थानों के दलिक अबाधा से ऊपर के स्थानों में प्रक्षिप्त नहीं किये जाते - अबाधा से ऊपर के स्थानों के दलिकों के साथ भोगे जायें वैसे नहीं किये जाते हैं । इस प्रकार होने से जो उत्कृष्ट अबाधा वह उत्कृष्ट अतीत्थापना, समयन्यून उत्कृष्ट अबाधा, वह समयन्यून उत्कृष्ट अतीत्थापना, दो समयन्यून अबाधा वह दो समयन्यून उत्कृष्ट अतीत्थापना है, इस प्रकार समय-समय हीन-हीन होते वहाँ तक कहना चाहिये कि जघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अबाधा वह जघन्य अतीत्थापना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org