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________________ उद्वर्तना और अपवर्तना करण उद्देशानुसार अब उद्वर्तना एवं अपवर्तना इन दो करणों का विचार किया जायेगा। स्थिति और अनुभाग इनके विषय हैं। अतएव स्थिति और अनुभाग के क्रम से इन दोनों करणों का प्रतिपादन करते हैं। निर्व्याघात और व्याघात के भेद से स्थिति उद्वर्तना के दो प्रकार हैं। उनमें से सर्वप्रथम निर्व्याघात स्थिति उद्वर्तना का निरूपण करते हैं। निर्व्याघात स्थिति उद्वर्तना उदयावलिवज्झाणं ठिईण उवट्टणा उ ठितिविसया। सोक्कोसबाहाओ जावावलि होई अइत्थवणा ॥१॥ शब्दार्थ---उदयावलिवज्झाणं-उदयावलिका से बाह्य; ठिईणस्थितियों की, उन्वट्टणा-उद्वर्तना, उ-और, ठितिविसया–स्थिति की विषय रूप, सोक्कोसअबाहाओ-अपनी उत्कृष्ट अबाधा से लेकर, जावावलिआवलिका पर्यन्त, होइ-है; अइत्थवणा-अतीत्थापना । गाथार्थ---स्थिति की विषय रूप उद्वर्तना उदयावलिका से बाह्य स्थितियों की होती है और अपनी उत्कृष्ट अबाधा से लेकर आवलिका पर्यन्त की स्थितियाँ अतीत्थापना है। विशेषार्थ-गाथा में स्थिति-उद्वर्तना का स्वरूप बताया है। उसमें भी पहले उद्वर्तना का लक्षण स्पष्ट करते हैं कि जीव के जिस प्रयत्न द्वारा स्थिति और रस की वृद्धि हो, उसे स्थिति और रस की उद्वर्तना कहते हैं। अर्थात् उद्वर्तना का विषय स्थिति और रस है, प्रकृति एवं प्रदेश नहीं । उद्वर्तना-अपवर्तना द्वारा प्रकृति और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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