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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११६
२४५ ___ गाथार्थ-क्षपकश्रेणि में वर्तमान जघन्य योग वाले जीव ने पुरुषवेद और संज्वलनत्रिक का अपने-अपने बंध के अंत समय में जो दलिक बांधा उसे अपने-अपने अन्तिम समय में संक्रमित किया जाता है वह उनका जघन्य प्रदेशसंकम है।
विशेषार्थ-क्षपकश्रेणि में वर्तमान जघन्य योग वाले जीव ने उन प्रकृतियों-पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया--का जिस समय चरम बंध होता है उस समय जो दलिक बांधा, उसकी बंधावलिका के बीतने के बाद संक्रमित करते संक्रमावलिका के चरम समय में पर प्रकृति में अंतिम संक्रम होता है, वह उनका जघन्य प्रदेशसंक्रम है।
उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि इन चारों प्रकृतियों का बंधविच्छेद के समय समयन्यून दो आवलिका में बंधे हुए दलिक को छोड़कर अन्य किसी भी समय का बंधा हुआ सत्ता में होता नहीं है और उसे भी प्रति समय संक्रमित करते हुए क्षय करता है और वह वहाँ तक कि चरमसमय में बंधे हुए दलिक का असंख्यातवां भाग शेष रहता है । पुरुषवेद आदि प्रकृतियों का बंधविच्छेद के समय समयोन दो आवलिका काल में बंधा हुआ दल ही शेष रहता है । ऐसा नियम है कि जिस समय बांधे उस समय से बंधावलिका के जाने के बाद संक्रमित करने की शुरुआत होती है और संक्रमावलिका के चरमसमय में सम्पूर्ण रूप से निर्लेप होता है। इस नियम के अनुसार उपर्युक्त प्रकृतियों का बंधविच्छेद के समय जो दलिक बंधता है, उसकी बंधावलिका के जाने के बाद संक्रमित किये जाने की शुरुआत होती है और संक्रमित करतेकरते संक्रमावलिका के चरमसमय में बंधविच्छेद के समय बंधा हआ शुद्ध एक समय का ही दल रहता है और वह भी बंधविच्छेद के समय जो बांधा था, उसका असंख्यातवां भाग ही शेष रहता है। उसे सर्वसंक्रम द्वारा संक्रमित करने पर उन प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम कहलाता है।
यद्यपि यहाँ संज्वलनलोभ के जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व का निर्देश नहीं किया है, परन्तु कर्मप्रकृति संक्रमकरण गाथा ६८ की
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