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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०२ ।। सागरोपम पर्यन्त अनुभव करे। उतने काल वह सातवीं नरकपृथ्वी का जीव सम्यक्त्व के प्रभाव से मनुष्यद्विक बांधे और बांधकर अपनी आयु के अंतिम अन्तर्मुहूर्त में मिथ्यात्व में जाये, वहाँ मिथ्यात्वनिमित्तक तिर्यंचद्विक बांधता हुआ वह गुणितकांश सातवीं नरक पृथ्वी का जीव वहाँ से निकलकर तिर्यंचगति में जाये, वहाँ पहले ही समय में बध्यमान तिर्यंचद्विक में यथाप्रवृत्तसंक्रम द्वारा मनुष्यद्विक को संक्रमित करते हुए उसका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करता है।
प्रश्न-सातवीं नरकपृथ्वी में सम्यक्त्वनिमित्तक मनुष्यद्विक को बांधकर अंतिम अन्तर्मुहूर्त में मिथ्यात्व में जाकर मनुष्यद्विक की बंधावलिका बीतने के बाद मिथ्यात्वनिमित्तक बंधने वाले तिर्यंचद्विक में मनष्यद्विक को संक्रमित करते उसका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम क्यों नहीं कहलाता है ? और अन्तर्मुहूर्त के बाद तिर्यंचगति में जाकर उतने काल मनुष्यद्विक को अन्य में संक्रम के द्वारा कुछ कम करके तिर्यचभक के पहले समय में तिर्यंचद्विक में संक्रमित करते हुए उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम क्यों कहलाता है ? ____उत्तर--सातवीं नरकपृथ्वी में मिथ्यात्वगुणस्थान में भवनिमित्तक मनुष्यद्विक का बंध नहीं होता है। जो प्रकृतियां भव या गुण निमित्तक बंधती नहीं हैं, उनका विध्यातसंक्रम होता है, यह बात पूर्व में कही जा चुकी है। इसलिये सातवौं नरकभूमि के नारक में अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में विध्यात संक्रम द्वारा मनुष्यद्विक संक्रमित होगी और तिर्यंचभव के पहले समय में यथाप्रवृत्तसंक्रम द्वारा संक्रमित होगी। क्योंकि तिर्यचभव में उसका बंध है। विध्यातसंक्रम द्वारा जो दलिक अन्य में संक्रमित होता है, वह अत्यन्त अल्प और यथाप्रवृत्तसंक्रम द्वारा जो संक्रमित होता है, वह अधिक-बहुत होता है। इसीलिये तिर्यंचभव में पहले समय में मनुष्यद्विक का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम कहा है। तीर्थकरनाम आदि का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्वामित्व
तित्थयराहाराणं सुरगइनवगस्स थिरसुभाणं च । सुभधुवबंधीण तहा सगबंधा आलिगं गंतु ॥१०२॥
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