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________________ संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०० २१७ है तथा बंध नहीं होने से उसमें अन्य किन्हीं प्रकृतियों के दलिक संक्रमित भी नहीं होते हैं । अतएव यदि आठवें गुणस्थान में बारह प्रकृतियों के साथ उसका उत्कृष्ट संक्रम कहा जाये तो वह घटित नहीं होता है । क्योंकि देव में से मनुष्य में आकर जहाँ तक आठवें गुणस्थान में बंधविच्छेदस्थान तक नहीं पहुँचे, वहाँ तक वज्रऋषभनाराचसंहनन को अन्य में संक्रमित करने के द्वारा हीनदल वाला करेगा, जिससे बारह के साथ उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम घटित नहीं हो सकता है । इसीलिये देव से मनुष्य में आकर आवलिका के बीतने के बाद उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम कहा है । नरकद्विकादि का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्वामित्व नरयदुगस्स विछोभे पुव्वकोडीपुहत्तनिचियस्स । थावरउज्जोयायवएगिंदीणं नपुं ससमं ॥ १००॥ शब्दार्थ –नरयदुगस्स – नरकद्विक का, विछोमे – चरम प्रक्षेप के समय, पुव्वको डीपुहुत्तनिचियस्स - पूर्वकोटिपृथक्त्व पर्यन्त बांधे गये, थावरउज्जो - यायवगिंदीणं-स्थावर, उद्योत, आतप और एकेन्द्रिय जाति का, नपुं समं - नपुंसक वेद के समान । गाथार्थ - पूर्वकोटिपृथक्त्व तक बांधे गये नरकद्विक का ( नौवें गुणस्थान में उसके ) चरमप्रक्षेप के समय उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है तथा स्थावर, उद्योत, आतपनाम और एकेन्द्रियजाति का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम नपुंसकवेद की तरह जानना चाहिये । विशेषार्थ -- पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले तिथंच के सात भवों में बार-बार नरकगति, नरकानुपूर्वि रूप नरकद्विक का बंध करे और आठवें भाव में मनुष्य होकर क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हो तो आरूढ़ हुए उस जीव के नरकद्विक को अन्यत्र संक्रमित करते जब चरम प्रक्षेप हो, तब सर्वसंक्रम द्वारा उसका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । तथा— Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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