SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचसंग्रह : ७ अब संज्वलन लोभ, यशः कीर्ति और उच्चगोत्र के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम के स्वामियों का निर्देश करते हैं । संज्वलन लोभ आदि प्रकृतित्रय: उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्वामित्व चउरुवसमित्तु खिप्पं लोभजसाणं ससंकमस्सते । चउसमगो उच्चस्सा खवगो नीया चरिमबंधे ॥ ६८ ॥ २१२ मोहनीय का उपशम करके, और यशः : कीर्ति का, ससंक शब्दार्थ - चउरुवस मित्तु -- चार बार खिप्पं- शीघ्र, लोभजसाणं-संज्वलन लोभ मस्संते -- अपने संक्रम के अंत में, चउसमगो -चार बार मोह का उपशम करने वाला, उच्चस्सा - उच्चगोत्र का, खवगो— क्षपक, चरिमबंधे - चरमबंध होने पर । नीया— नीचगोत्र का करके शीघ्र क्षपकअंत में (संज्वलन) गाथार्थ- -चार बार मोहनीय का उपशम श्रेणि प्राप्त करने वाले के अपने संक्रम के लोभ और यशः कीर्ति का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है तथा चार बार मोह का उपशम करने वाले क्षपक के जब नीचगोत्र का चरम बंध हो तब उच्चगोत्र का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करता है । विशेषार्थ - - ' चउरुवसमित्तु' अर्थात् अनेक भवों में भ्रमण करने के द्वारा चार बार मोहनीय को उपशमित करके और चौथी बार की उपशमना होने के बाद शीघ्र क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हुए गुणितकर्मांश उसी जीव को अंतिम संक्रम के समय संज्वलन लोभ और यशः कीर्ति का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । यहाँ चार बार उपशमश्रेणि प्राप्त करने का कारण इस प्रकार है - उपशमश्रेणि जब प्राप्त करे तब उस श्रेणि में स्वजातीय अन्य प्रकृतियों के प्रभूत दलिकों का गुणसंक्रम द्वारा संक्रम होने से संज्वलन लोभ और यशः कीर्ति ये दोनों प्रकृति निरन्तर पूरित पुष्ट होती हैंप्रभूत दलिकों की सत्ता वाली होती हैं, इसीलिये उपशमश्रेणि का ग्रहण किया है तथा संसार में परिभ्रमण करते हुए चार बार ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy