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( १८ )
अपने स्वरूप को छोड़कर मिल जाना, बध्यमान प्रकृति रूप में परिणमन होना संक्रम कहलाता है । बध्यमान प्रकृतियों का भी परस्पर में संक्रम होता है । इनके कुछ अपवाद भी हैं। जैसे कि मूल प्रकृतियों का परस्पर में संक्रम नहीं होता है। इसी प्रकार दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय तथा आयु कर्म की उत्तर प्रकृतियों में परस्पर संक्रम नहीं होता है ।।
इस प्रकार सामान्य से संक्रम का लक्षण निर्देश करने के बाद पूर्व की तरह प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चार भेदों के द्वारा संक्रमकरण का विस्तार से विचार करना प्रारम्भ किया है ।
प्रकृति संक्रम में संक्रम का पूर्वोक्त सामान्य लक्षण घटित करके एवं तत्संबन्धी अपवादों का कारण सहित स्पष्टीकरण करके जिन प्रकृतियों में प्रकृतियां संक्रमित होती हैं उनकी संज्ञा का निर्देश किया है कि वे पतद्ग्रह प्रकृति कहलाती हैं एवं इन प्रकृतियों सम्बन्धी अपवादों को भी बतलाया है । । तत्पश्चात् संक्रमापेक्षा मूल कर्म प्रकुतियों के सादि-अनादि भंग नहीं होने से उत्तरप्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा का विचार किया है। और इसके बाद संक्रम्यमाण प्रकृतियों के स्वामित्व की प्ररूपणा की है।
जिस प्रकार से पूर्व में संक्रम्यमाण उत्तर प्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा का विचार किया है, उसी तरह पतद्ग्रह प्रकृतियों की भी साद्यादि प्ररूपणा का कथन किया है। फिर संक्रम और पतद्ग्रह स्थानों का विचार किया है । प्रत्येक कर्म की एक साथ कितनी प्रकृतियाँ संक्रमित हो सकती हैं, और वे कितनी प्रकृतियों में संक्रमित होतो हैं । एतद्विषयक मोहनीय और नामकर्म की प्रकृतियों का विस्तार से वर्णन किया है।
इसके बाद संक्रम और पतद्ग्रहस्थानों की साद्यादि प्ररूपणा की है । इसके साथ ही मोहनीय कर्म के संक्रमस्थानों एवं पतद्ग्रहस्थानों के बारे में विस्तार से चर्चा की है। ___ तत्पश्चात् नामकर्म के संक्रमस्थानों और पतद्ग्रहस्थानों की विस्तार से चर्चा की है और उसके बाद अन्त में प्रकृतिसंक्रम आदि के आशय को स्पष्ट किया है।
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