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पंचसंग्रह : ७
निकलकर ( तिर्यंच में आकर ) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करे और उसके बाद क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के रहते अनन्तानुबंधि कषायों की विसंयोजना - क्षय करने के लिये प्रयत्न करे और क्षय करते हुए अनन्तानुबंध के चरमखंड का चरमप्रक्षेप करे तब सर्वसंक्रम द्वारा उनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । इसका तात्पर्य यह है कि चरमखंड का समस्त दलिक चरमसमय में सर्वसंक्रम द्वारा जितना पर में संक्रमित किया जाये, वह अनन्तानुबंधि कषायों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम कहलाता है ।
प्रदेशसंक्रम- स्वामित्व का निर्देश
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अब वेदत्रिक के उत्कृष्ट
करते हैं ।
वेदत्रिक : उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्वामित्व
ईसाणागयपुरिसस इत्थियाए व अट्ठवासाए । मासपुहुत्तम्भहिए नपुं सगस्स चरिमसंछोभे ॥ ६४ ॥
शब्दार्थ-ईसाणागयपुरिसस्स — ईशान देवलोक से आगत पुरुष के, इत्थियाए - स्त्री के, व — अथवा, अट्ठवासाए- -आठ वर्ष की उम्र वाले, मासपुहुत्तम्भहिए -- मासपृथक्त्व अधिक के, नपुं सगस्स – नपुंसकवेद का, चरिमसंछोभे- चरम संक्षोभ के समय ।
गाथार्थ-मासपृथक्त्व अधिक आठ वर्ष की उम्र वाले ईशान देवलोक से आगत पुरुष अथवा स्त्री के चरम समय में नपुंसकवेद का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है ।
विशेषार्थ - वेद मोहनीय के पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेद ये तीन भेद हैं । इन तीन भेदों में से यहाँ नपुंसकवेद के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम के स्वामी का निरूपण करते हुए बताया है
कोई गुणितकर्मांश ईशान देवलोक का देव संक्लिष्ट परिणामों द्वारा एकेन्द्रियप्रायोग्य कर्मबंध करते हुए नपुंसकवेद को बार-बार बांधकर, उसके बाद ईशान देवलोक में से च्युत हो पुरुष अथवा स्त्री
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