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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६० २०१ का कारण उद्वर्तना अधिक हो और अपवर्तना अल्प हो, यह है तथा चरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट योग ग्रहण करने का कारण कर्मपुद्गलों का परिपूर्ण संचय हो, यह है। इस प्रकार के स्वरूप वाला नारक अपनी आयु के चरम समय में सम्पूर्ण गुणितकर्माश होता है। उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम की स्वामित्वप्ररूपणा में उपर्युक्त स्वरूप वाले गुणितकर्माश जीव का ही अधिकार है। क्योंकि वैसा उत्कृष्ट प्रदेश का संचय-सत्ता वाला जीव ही उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम कर सकता है। ___ इस प्रकार से गुणितकर्माश-अधिक-से-अधिक काश की सत्ता वाले जीव का स्वरूप जानना चाहिये। अब किस प्रकृति का कौन उत्कृष्ट प्रदेश का संक्रम करता है, इसके लिये आचार्य गाथासूत्र कहते हैं। औदारिकसप्तक आदि का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्वामित्व तत्तो तिरियागय आलिगोरि उरलएक्कवीसाए। सायं अणंतर बंधिऊण आली परमसाए ॥१०॥ शब्दार्थ-तत्तो-वहां से-सातवीं नरक पृथ्वी से निकलकर, तिरियागय–तिर्यंचगति में आगत-आया हुआ, आलिगोरि-एक आवलिका के जाने के बाद, उरलएक्कवीसाए----औदारिकादि इक्कीस प्रकृतियों का, सायंसातावेदनीय को, अणंतर- अनन्तर, बंधिऊण-बांधकर, आली-आवलिका, परमसाए--बाद में असातावेदनीय में। ___ गाथार्थ-वहाँ से--सातवीं नरकपृथ्वी से निकलकर तिर्यंचगति में आया हुआ वह जीव आवलिका जाने के बाद औदारिक आदि इक्कीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करता है। तिर्यंचगति में साता को बांधकर आवलिका के अनन्तर बध्यमान असातावेदनीय में सातावेदनीय का संक्रम करे, वह उसका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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