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________________ संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८५-८६ उद्वर्तना और अल्प अपवर्तना करने का कारण ऊपर के स्थानों को कर्म दलिकों से पुष्ट करने का संकेत करना है । 222 इसके बाद प्रत्येक भव में आयु के बंधकाल में जघन्य योग से आज का बंध करके और यहाँ जघन्य योग से आयु का बंध करने का कारण यह है कि यद्यपि आयु के योग्य उत्कृष्ट योग में रहता जीव आयुकर्म के बहुत से पुद्गलों को ग्रहण करता है, परन्तु तथाप्रकार के जीवस्वभाव से ज्ञानावरणकर्म के अधिक पुद्गलों का क्षय करता है । यहाँ जो मात्र ज्ञानावरण कर्म के ही अधिक पुद्गलों का क्षय करने को कहा है उसमें जीवस्वभाव ही कारण है । किसी भी कर्म के प्रभूत पुद्गल सत्ता में से कम हों, उसका यहाँ प्रयोजन नहीं है, इसीलिये जघन्य योग से आयु बंध करने का संकेत किया है । इसके बाद ऊपर के स्थितिस्थानों में कर्मपुद्गलों को क्रमबद्ध व्यवस्थितं निक्षिप्त करने रूप निषेक अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार अधिक करके और ( क्योंकि ऊपर के स्थानों में अधिक निक्षेप करने के कथन का कारण यह है कि नीचे के स्थान तो उदय द्वारा भोगे जाकर क्षय हो जायेंगे, परन्तु ऊपर के स्थानों में प्रक्षिप्त दलिक ही गुणितकर्माश होने तक स्थित रह सकेंगे) इस प्रकार से बादर पृथ्वीकाय में पूर्वकोटि पृथक्त्वाधिक दो हजार सागरोपम न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम पर्यन्त रहकर वहाँ से निकले और निकलकर बादर त्रसकाय में उत्पन्न हो । फिर ऊपर जो गुणितकर्मांश के योग्य विधि कही है, उस विधि पूर्वक पूर्वकोटिपृथक्त्वाधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण बादर त्रसकाय के कायस्थितिकालपर्यन्त बादर त्रस में रहकर, उतने काल में अधिक से अधिक जितनी बार सातवीं नरकपृथ्वी में जा सके उतनी बार उस पृथ्वी में जाये और उन नारक भवों में के अंतिम सातवीं नरकपृथ्वी के भव में अन्य समस्त दूसरे नारकों से शीघ्र पर्याप्तभाव को प्राप्त हो- शीघ्र पर्याप्त हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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