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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८५-८६
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कषाय वाला होकर---
अपनी आयु के अंत में योग के यवमध्य के ऊपर के योगस्थानों में अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहकर तथा त्रिचरम एवं द्विचरम समय में उत्कृष्ट कषाय और द्विचरम एवं चरम समय में उत्कृष्ट योग पूरित करके
द्विचरम और चरम समय में उत्कृष्ट योग वाला हो। इस विधि से अपने आयु के चरम समय में वह सप्तम नरकपृथ्वी का जीव संपूर्ण गुणितकर्माश होता है। ऐसा जीव ही प्रकृत मेंउत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम के स्वामित्व के विषय में-अधिकृत है। अर्थात् ऐसे जीव का ही यहाँ अधिकार है । ऐसा गुणितकर्मीश जीव उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम का स्वामी जानना चाहिये । विशेषार्थ-इन पांच गाथाओं में आचार्य ने गुणितकर्मांश जीव की स्वरूपव्याख्या की है। गुणितकर्माश अर्थात् प्रभूत कर्मवर्गणाओं से सम्पन्न-युक्त जीव। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है___त्रस जीव दो प्रकार के हैं—१. सूक्ष्म त्रस और २. बादर त्रस । द्वीन्द्रियादि जीव बादर त्रस और तेजस्काय तथा वायुकाय के जीव सूक्ष्म त्रस कहलाते हैं। यहाँ सूक्ष्म त्रसों का व्यवच्छेद करने के लिये ग्रंथकार आचार्य ने बादर पद ग्रहण किया है। द्वीन्द्रिय आदि बादर त्रसों की पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण जो कायस्थितिकाल कहा है, उससे न्यून मोहनीयकर्म की सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति पर्यन्त कोई जीव बादर पृथ्वीकाय के भवों में से पर्याप्त के भवों में दीर्घ आयुष्य से और अपर्याप्त के भवों में अल्प आयुष्य से रहे।
यहाँ बादर और पर्याप्त विशेषण युक्त पृथ्वीका य के जीव को ग्रहण करने का कारण यह है कि शेष एकेन्द्रियों की अपेक्षा बादर पृथ्वीकाय की आयु अधिक होती है तथा शेष एकेन्द्रियों की अपेक्षा पर्याप्त खर बादर पृथ्वीकाय के अत्यन्त बलवान होने से दु:ख सहन
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