SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ पंचसग्रह : ७ कर्मक्षय के लिये उद्यत गुणितकर्माश जीव उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करता है, अन्य कोई नहीं करता है। उसको यह नियतकाल पर्यन्त ही होने से सादि-सांत है। उसके सिवाय अन्य सब प्रदेशसंक्रम अनुत्कृष्ट है और वह उपशमश्रेणि में बंधविच्छेद होने के बाद नहीं होता है, वहाँ से गिरने पर होता है, इसलिए सादि है, उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वाले की अपेक्षा अनादि, अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्र व है। तथा सेसं साइ अधुवं जहन्न सामी य खवियकम्मंसो। ओरालाइसु मिच्छो उक्कोसगस्स गुणियकम्मो ॥४॥ शब्दार्थ-सेसं-शेष विकल्प, साइ अध्रवं-सादि, अध्र व, जहन्नजघन्य प्रदेशसंक्रम, सामी--स्वामी, य-और, खवियकम्मसो-क्षपितकर्मांश, ओरालाइसु--औदारिकादि का, मिच्छो--मिथ्यात्व में, उक्कोसगस्स-उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम का, गुणियकम्मो-गुणितकर्माश । । ___ गाथार्थ-शेष सर्व विकल्प सादि, अध्र व हैं । जघन्य प्रदेशसंक्रम का स्वामी क्षपितकर्मांश है और उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम का गुणितकर्माश स्वामी है। औदारिकादि का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम मिथ्यात्व में होता है। विशेषार्थ-पूर्व गाथा में जिन प्रकृतियों के विकल्पों के लिये कहा गया है, उनके उक्त विकल्पों के सिवाय जघन्य आदि सर्व सादि-सांत जानना चाहिये। उनमें एक सौ पांच प्रकृतियों के तो जघन्य और उत्कृष्ट ये दो विकल्प शेष हैं और उनका विचार प्रायः अनुत्कृष्ट और अजघन्य का स्वरूप कहने के प्रसंग में किया जा चुका है । उनके नियतकाल पर्यन्त ही होने से जघन्य और उत्कृष्ट सादिअध्र व (सांत) ही होते हैं। ___औदारिकसप्तक आदि इक्कीस प्रकृतियां जिनको पूर्व गाथा में वर्जित किया है, उनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम गुणितकर्माश मिथ्यादृष्टि के होता है, उसके अतिरिक्त शेष काल में अनुत्कृष्ट होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy