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पंचसंग्रह : ७
यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि सम्यक्त्वमोहनीय की उद्वलना पहले कही किन्तु क्षायिक सम्यक्त्व उपार्जित करते हुए जो नहीं कही है, तो उसका कारण यह है कि उद्वलनासंक्रम द्वारा स्व और पर दोनों में दलिकों का प्रक्षेप किया जाता है। चौथे आदि में सम्यक्त्वमोहनीय के दलिक दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय का परस्पर संक्रम नहीं होने से पर में नहीं जाते हैं, मात्र स्व में ही संक्रांत होते हैं, इसीलिये चतुर्थ आदि गुणस्थानों उसकी उद्वलना नहीं होती है। _उद्वलनासंक्रमयोग्य प्रकृतियों का स्वामित्व और काल दर्शक प्रारूप पृष्ठ १७७ पर देखिये।
इस प्रकार से उद्वलनासंक्रम का स्वरूपनिर्देश करने के अनन्तर अब यथाप्रवृत्तसंक्रम का वर्णन करते हैं। यथाप्रवृत्तसंक्रम
संसारत्था जीवा सबंधजोगाण तद्दलपमाणा।
संकामे तणुरूवं अहापवत्तीए तो णाम ॥७६॥ शब्दार्थ-संसारत्था--संसारस्थ, जीवा-जीव, सबंधजोगाण--स्वबंधयोग्य प्रकृतियों के दलिकों को, तद्दलपमाणा-दल के प्रमाण में, संकामेसंक्रमित करता है, तणुरूवं-तदनुरूप-योगानुसार, अहापवत्तीए-यथाप्रवृत्ति से, तो-इसलिये, णाम-नाम । ___ गाथार्थ-संसारस्थ जीव स्वबंधयोग्य प्रकृतियों के दलिकों को उन-उन प्रकृतियों के सत्तागत दल के प्रमाण में (अनुरूप) योगानुसार संक्रमित करता है, इसलिये उसका यथाप्रवृत्त ऐसा नाम है।
विशेषार्थ---यथाप्रवृत्तसंक्रम यानि योग की प्रवृत्ति के अनुरूप होने वाला संक्रम । यदि योग की प्रवृत्ति अल्प हो तो अल्प दलिकों का संक्रम होता है, मध्यम प्रवृत्ति हो तो मध्यम और यदि योग
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