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________________ संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७३ शब्दार्थ - दुरिमखंडल्स - द्विचरमखंड का, दलं —– दलिक, चरिमेचरमसमय में, जं— जो, देइ-प्रक्षिप्त किया जाता है, सपरट्ठाणंभि -स्व और पर स्थान में, तम्माणणस्स - इस प्रमाण से, दलं- दलिक, पल्लंगुल संखभागेहि -- पल्योपम के असंख्यातवें भाग काल और अंगुल के असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाश प्रदेश के समय प्रमाण । १७१ गाथार्थ- - चरम समय में द्विचरमखंड का जो दलिक स्व और पर में प्रक्षिप्त किया जाता है, उस प्रमाण से चरमखंड का वह दलिक पर में प्रक्षेप करते अनुक्रम से पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने काल और अंगुल के असंख्यातवें भाग में रहे आकाश प्रदेश के समय प्रमाण काल में दूर होता है, निर्लेप होता है । विशेषार्थ- चरमसमय में द्विचरमस्थितिखंड का जो प्रदेशप्रमाण अपने ही चरम स्थितिखंड रूप स्वस्थान में प्रक्षिप्त किया जाता है, उस प्रमाण से चरम स्थितिखंड का दलिक प्रतिसमय अन्य में संक्रमित करते पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने काल में वह चरमखंड पूर्ण रूप से निर्मूल किया जाता है । अर्थात् उस चरमखंड को सर्वथा निगू करने में पल्योपम का असंख्यातवां भाग जितना काल लगता है तथा चरमसमय में द्विचरम स्थितिखंड का दलिक जितना परप्रकृति में प्रक्षिप्त किया जाता है, उस प्रमाण से अपहृत किया जाता चरमखंड का दलिक अंगुल के असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाश प्रदेश प्रमाण समयों द्वारा अपहृत किया जा है । अर्थात् चरमसमय में द्विचरम स्थितिखंड के दलिक को जितना पर में प्रक्षिप्त किया जाता है, उस प्रमाण से चरमखंड को पर में संक्रमित किया जाये तो उस चरमखंड को सम्पूर्ण रूप से निर्मूल होने में अंगुल के असंख्यातवें भाग के आकाश प्रदेशप्रमाण समय व्यतीत हो जाते हैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि अंगुल मात्र क्षेत्र के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने चरमस्थितिखंड के ऊपर कहे गये प्रमाण वाले दलिक के खंड होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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