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________________ १६८ पंचसंग्रहः ७ परट्ठाणे---परस्थान में, विसेसहीणाए-विशेषहीन रूप, संछुभइ-संक्रमित किया जाता है। गाथार्थ-प्रतिसमय प्रत्येक स्थितिखंड के दलिक स्वस्थान में असंख्यातगुण रूप श्रेणि से और परस्थान में विशेषहीन रूप श्रेणि से संक्रमित किया जाता है। विशेषार्थ-पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण खंड में से जितनी स्थिति दूर करने के लिये समय-समय जो दलिक संक्रमित करने के लिये ग्रहण किये जाते हैं, उनमें से पहले समय में अल्प दलिक उत्कीर्ण किये जाते हैं, यानि उखाड़े जाते हैं-वहाँ से उन दलिकों को लेकर अन्यत्र प्रक्षिप्त किया जाता है, दूसरे समय में असंख्यातगुण, उससे तीसरे समय में असंख्यातगुण उत्कीर्ण किये जाते हैं। इस प्रकार से उत्कीर्ण करते हुए उस प्रथम खंड को दूर करते जो अन्तर्मुहूर्तकाल जाता है, उसके चरम समय में विचरम समय से असंख्यातगुण उत्कीर्ण किये जाते हैं। यह प्रथम खंड के उत्कीर्ण करने के विधि जानना चाहिये । इसी क्रम से द्विचरम खंड तक के समस्त स्थितिखंडों को उत्कीर्ण किया जाता है। __ अब इन दलिकों का कहाँ प्रक्षेप किया जाता है ? इसको स्पष्ट करते हैं—स्थितिखंड के दलिक को प्रतिसमय स्वस्थान में असंख्यातगुणाकार रूप और परस्थान में विशेषहीन श्रेणि से संक्रमित किया जाता है । वह इस प्रकार-पहले समय में स्थितिखंड का जो कर्मदलिक अन्यप्रकृति में प्रक्षिप्त किया जाता है—अन्यप्रकृति रूप किया जाता है, वह अल्प है, उससे उसी समय स्वस्थान में नीचे जो प्रक्षिप्त किया है, वह पर में प्रक्षिप्त किया उससे असंख्यातगुण होता है। उद्वलनासंक्रम द्वारा स्थितिखंड में से ग्रहण किया गया दलिक कितना ही पररूप करता है और कितना ही जिस प्रकृति को उद्वलनासंक्रम द्वारा निमूल किये जाने का प्रयत्न किया जाता है, उसके अपने जो स्थान उद्वलित किये जाते हैं, उनके सिवाय शेष नीचे के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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