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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७१ १६५ अब पल्योपम के असंख्यातवं भाग प्रमाण स्थितिखंड के विषय में जो विशेष है, उसको कहते हैं पढमाओ बीअखंडं विसेसहीणं ठिइए अवणेइ । एवं जाव दुचरिमं असंखगुणियं तु अंतिमयं ॥७॥ शब्दार्थ---पढमाओ-प्रथम स्थितिखंड से, बीअखंड-दूसरा खंड, विसेसहीणं-विशेषहीन, ठिइए-स्थिति से, अवणेइ-दूर करता है, एवं-इसी प्रकार, जाव--पर्यन्त, तक, दुचरिम-द्विचरमखंड, असंखगुणियं-असंख्यातगुण, तु-और, अंतिमयं-अन्तिम । गाथार्थ-स्थिति के प्रथम स्थितिखंड से स्थिति का दूसरा खंड विशेषहीन स्थिति से (अन्तर्मुहूर्त से) दूर करता है । इस प्रकार द्विचरमखंड तक जानना चाहिये । अंतिम खंड असंख्यात गुण बड़ा जानना चाहिये। विशेषार्थ-उद्वलनासंक्रम द्वारा पल्योपम के असंख्यातवेंअसंख्यातवें भाग प्रमाण जो स्थिति के खंड दूर किये जाते हैं-नष्ट किये जाते हैं, उनमें पहले स्थितिखंड से दूसरा स्थिति का खंड विशेषहीन दूर किया जाता है, तीसरा उससे भी हीन दूर किया जाता है, इस प्रकार पूर्व-पूर्व से हीन-हीन स्थिति के खंडों को द्विचरम स्थितिखंड पर्यन्त दूर किया जाता है । इसका तात्पर्य यह है कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिस्थानों में रहे हुए दलिकों को एक साथ दूर करने का प्रयत्न किया जाये तो उतने समस्त स्थानों में से पहले समय में अमुक प्रमाण में दलिक लेकर दूर किया जाता है, दूसरे समय में समस्त में से दलिक लेकर दूर किया जाता है। इस प्रकार अन्तमुहर्त काल में पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण खंड को एक साथ दूर किया जाता है। __जैसे कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग के असत्कल्पना से सौ स्थान मान लिये जायें तो पहले समय में उन सौ में से दलिक लेकर दूर किये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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