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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७० है, बंधयोग्य सभी प्रकृतियों का वह होता है और विध्यातसंक्रम तो गुण अथवा भव निमित्त से जो-जो प्रकृतियां बंध में से विच्छिन्न हुईं, उन-उनका होता है। जिससे साधरणतया पहले यथाप्रवृत्तसंक्रम प्रवर्तित होता है और बंध में से विच्छिन्न होने के बाद विध्यातसंक्रम की प्रवृत्ति होती है। इसीलिये यह कहा है कि यथाप्रवृत्तसंक्रम के अन्त में विध्यातसंक्रम प्रवर्तित होता है तथा प्रायः कहने का कारण यह है कि अन्य संक्रमों के प्रवर्तित होने के बाद भी यदि विध्यातसंक्रम प्रवर्तित हो तो इसमें कोई बाधा नहीं है। जैसे कि उपशमश्रेणि में गुणसंक्रम प्रवर्तित होने के अनन्तर मरण प्राप्त करके अनुत्तरविमान में जाये तो गुणनिमित्त से नहीं बंधने वाली प्रकृतियों का विध्यातसंक्रम होता है और उपशमसम्यक्त्व प्राप्ति के अंतरकरण में मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय के गुणसंक्रम के अंत में विध्यातसंक्रम होता है। उक्त समग्र कथन का दर्शक प्रारूप पृष्ठ १६२ पर देखिये । इस प्रकार से विध्यातसंक्रम का स्वरूप जानना चाहिये । अब उद्वलनासंक्रम का स्वरूप निर्देश करते हैं। उद्वलनासंक्रम पलियस्ससंखभागं अंतमुत्तेण तीए उव्वलइ । एवं पलियासंखियभागेणं कुणइ निल्लेवं ॥७०॥ शब्दार्थ-पलियस्ससंखभागं—पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण खंड को, अंतमुहत्तेण-अन्तर्मुहर्त काल में, तीए-उसको, उव्वलइ-उद्वलना करता है, एवं-इसी प्रकार, पलियासंखियभागेणं--पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल द्वारा, कुणइ-करता है, निल्लेवं--निर्लेप । गाथार्थ-(सत्तागत स्थिति के अग्रभाग से) पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण खंड को अन्तर्मुहर्त काल में उद्वलित करता है। इसी प्रकार से उद्वलना करते हुए पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल में उसको सर्वथा निर्लेप करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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