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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५८
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के पश्चात् शुभ परिणामों के योग से उसके उत्कृष्ट रस का विनाश सम्भव है। मिथ्यादृष्टि जीव पाप या पुण्य प्रकृति के उत्कृष्ट रस को यथायोग्य रीति से बांधे तो भी बन्ध होने के अनन्तर अन्तर्मुहर्त के बाद उन शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट रस का संक्लेश द्वारा और अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट रस का विशुद्धि द्वारा अवश्य नाश करता है, इसीलिये उनको उत्कृष्ट रस के संक्रम का काल अन्तमुहूर्त कहा है।
आयावुज्जोवोराल पढमसंघयणमणदुगाउणं ।
मिच्छा सम्ना व सामो सेसाणं जोगि सुभियाणं ॥५८॥ शब्दार्थ-आवावुज्जोवोराल-आतप, उद्योत, औदारिक (सप्तक), पढमसंघयणमणदुगाउणं-प्रथम संहनन, मनुष्यद्विक, आयुचतुष्क के, मिच्छा-मिथ्या दृष्टि, सम्मा--सम्यग्दृष्टि, य-और, सामी-स्वामी, सेसाणं-शेष, जोगि-सयोगिकेवली, सुभियाणं-शुभ प्रकृतियों के ।।
गाथार्थ-आतप, उद्योत, औदारिकसप्तक, प्रथम संहनन, मनुष्यद्विक और आयुचतुष्क के उत्कृष्ट रससंक्रम के स्वामी मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये और शेष शुभ प्रकृतियों के सयोगिकेवली हैं। विशेषार्थ--आतप, उद्योत, औदारिक सप्तक, प्रथम संहनन और मनुष्यद्विक इन बारह प्रकृतियों के उत्कृष्ट रससंक्रम के स्वामी मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों प्रकार के जीव समझना चाहिये। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--
सम्यग्दृष्टि जीव शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का विनाश नहीं करते हैं, किन्तु विशेषतः एक सौ बत्तीस सागरोपम तक उसको सुरक्षित रखते हैं, जिससे आतप, उद्योत के सिवाय उपयुक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट रस को सम्यग्दृष्टि होने पर भी बांधकर बंधावलिका के अनन्तर उस उत्कृष्ट रस को उपयुक्त काल पर्यन्त सम्यग्दृष्टि जीव संक्रमित करते हैं तथा उपर्युक्त काल पर्यन्त उस रस को सुरक्षित Jain Education International
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