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अनुक्रम से ध्रुव और अध्रुव है ।
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उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य रूप शेष तीन विकल्प सादि और सांत है । वे इस प्रकार -- जो उत्कृष्ट स्थितिबंध करते हैं वही उत्कृष्ट स्थिति संक्रमित करते हैं । उत्कृष्ट स्थितिबंध उत्कृष्ट संक्लेश से होता है और वह उत्कृष्ट संक्लेश सदैव होता नहीं, किन्तु बीच-बीच में हो जाता है, जिससे जब उत्कृष्ट स्थितिबंध हो तब उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम होता है। इसके सिवाय शेष काल में अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रम होता है । इस प्रकार दोनों एक के बाद एक इस क्रम से होने के कारण सादिसांत हैं तथा जघन्य स्थितिसंक्रम एक समय प्रमाण होता है, इसलिये वह सादि-सांत है । इसको पूर्व में कहा जा चुका है ।
पंचसंग्रह : ७
इस प्रकार मूल कर्मों के उत्कृष्ट आदि स्थितिसंक्रम में साद्यादि भंग जानना चाहिये । सुगमता से बोध करने के लिये जिसका प्रारूप पृष्ठ १२१ पर देखिए ।
अब उत्तरप्रकृतियों के सादि आदि भंगों का विचार करते हैं ।
उत्तर प्रकृतियों के सादि आदि भंग
तिविहो ध्रुवसंताणं चउव्विहो तह चरित्तमोहीणं । अजहन्नो सेसासु दुविहो सेसा वि दुविगप्पा ॥५१॥
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शब्दार्थ - तिविहो— तीन प्रकार का ध्रुवसंताणं— ध्रुवसत्ताका प्रकृतियों का, चउब्विहो - चार प्रकार का, तह — तथा, चरितमोहीणं - चारित्रमोहनीय प्रकृतियों का अजहतो - अजघन्य, सेसासु–शेष प्रकृतियों का, दुविहो-दो प्रकार का सेसा - शेष विकल्प, वि― भी, बुविगप्पा - दो प्रकार के ।
गाथार्थ - ध्रुवसत्ताका प्रकृतियों का अजघन्य स्थितिसंक्रम तीन प्रकार का है, चारित्रमोहनीय का चार प्रकार का और शेष
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