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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४८ गतियों में से किसी भी गति में वर्तमान जीव है तथा यस्थिति समयाधिक आवलिका है । तथा
निद्दादुगस्स साहिय आवलियदुगं तु साहिए तसे । - हासाईणं संखेज्ज वच्छरा ते य कोहम्मि ॥४८॥
शब्दार्थ-निहादुगस्स-निद्राद्विक की, साहिय आवलियदुर्ग-साधिक आवलि काद्विक, तु-और, साहिए तंसे-साधिक तीसरे भाग में, हासाईणंहास्यादि का, संखेज्ज-संख्यात, वच्छ रा-वर्षप्रमाण, ते—वह, य--और कोहम्मि-क्रोध में। ___ गाथार्थ-निद्राद्विक की समय मात्र स्थिति को जो साधिक तीसरे भाग में संक्रमित किया जाता है, वह उसका जघन्य स्थितिसंक्रम है। साधिक आवलिकाद्विक यत्स्थिति है तथा हास्यादि का जो संख्यात वर्ष प्रमाण संक्रम होता है, वह उनका जघन्य स्थितिसंक्रम है और वह क्रोध में होता है। विशेषार्थ-निद्रा और प्रचला रूप निद्राद्विक की अपनी स्थिति की ऊपर की एक समयमात्र स्थिति को अपने संक्रम के अंत में उदयावलिका के नीचे के समयाधिक तीसरे भाग में जो संक्रमित किया जाता है, वह उसका जघन्य स्थितिसंक्रम है। जिसका तात्पर्य इस प्रकार है
क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान में क्षय करते-करते निद्राद्विक की आवलिका प्रमाण स्थिति सत्ता में शेष रहे तब सब से ऊपर की समय प्रमाण स्थिति को अपवर्तनाकरण द्वारा नीचे के उदय समय से लेकर उदयावलिका के समयाधिक तीसरे भाग में जो संक्रमित किया जाता है, वह निद्राद्विक का जघन्य स्थितिसंक्रम कहलाता है और उसका स्वामी क्षीणकषायवीतराग जीव है। उस समय यत्स्थिति आवलिका के असंख्यातवें भाग अधिक दो आवलिका है।
यहाँ वस्तुस्वभाव ही यह है कि निदाद्विक की आवलिका के असंख्यातवें भाग अधिक दो आवलिकाप्रमाण स्थिति सत्ता में शेष Jain Education International
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