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________________ संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३६ उत्कृष्ट स्थिति की सत्ता अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहती है । विशुद्धि के बल से अन्तर्मुहूर्त में ही अन्तः कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति कर देता है और बंध तो अन्तः कोडाकोडी सागरोपम ही होता है । कदाचित् यहाँ यह शंका हो कि वह उत्कृष्ट स्थिति सत्ता में जब हो तब उस स्थिति का संक्रम होने से मनुष्यद्विकादि की तरह उत्कृष्ट स्थितिसत्ता क्यों नहीं होती है ? तो इसका उत्तर यह है कि उस समय तीर्थंकरनाम और आहारकसप्तक का बंध ही नहीं होता है । जब उनका बंध होता है तब किन्हीं भी कर्मप्रकृतियों की अन्तःकोडाकोडी सागरोपम से अधिक सत्ता नहीं होती है, जिससे यशः कीर्तिनाम आदि की स्थिति का जब उनमें संक्रम होता है, तब अंत: कोडाकोडी सागरोमप्रमाण स्थिति का ही होता है, जिससे तीर्थंकरनाम और आहारकसप्तक की सत्ता अंत: कोडाकोडी सागरोपम से अधिक होती ही नहीं है । मात्र बंधस्थिति से सत्तागत स्थिति संख्यातगुणी होने से बंध से संख्यातगुणी स्थिति का संक्रम होता है । अर्थात् तीर्थंकरनामकर्म और आहारकसप्तक के बंध से उनकी सत्तागत स्थिति संख्यात गुणी होती है । 1 सामान्यतः सम्यग्दृष्टि आदि जीवों के प्रत्येक प्रकृति के बंध से उनकी सत्तागत स्थिति संख्यातगुणी होती है। तीर्थकरनाम और आहारकसप्तक के बंधकाल में उनमें संक्रमित होने वाली स्वजातीय प्रकृति की जितनी उत्कृष्ट स्थिति की सत्ता होती है, वह यथायोग्य रूप से संक्रमित हो सकती है, इसीलिये तीर्थंकरनाम और आहारकसप्तक को संक्रमोत्कृष्टा प्रकृति कहा गया है । ६५ प्रश्न- नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण है । अतएव जब आहारकसप्तक और तीर्थंकरनामकर्म की मनुष्यद्विक की तरह संक्रम द्वारा उत्कृष्ट स्थिति की सत्ता बंधावलिका १. बंधठिइउ संतकम्मठिइ संखेज्जगुणा । Jain Education International For Private & Personal Use Only - कर्म प्रकृतिचूर्णि www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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