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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३६ स्थिति को देवद्विक को बांधता हुआ उसमें संक्रमित करता है। __यहाँ बंधावलिका बीतने के बाद उदयावलिका से ऊपर की स्थिति मनुष्य द्विक में संक्रमित हुई और संक्रमावलिका के बीतने के बाद उदयावलिका से ऊपर की मनुष्यद्विक की स्थिति देवद्विक में संक्रांत हुई, यानि संक्रमोत्कृष्टा मनुष्यद्विक की तीन आवलिकाहीन स्थिति का ही देवद्विक में संक्रमण हुआ। इसी से ऊपर कहा है कि संक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों की तीन आवलिका न्यून उत्कृष्ट स्थिति का ही अन्यत्र संक्रमण होता है।
यहाँ यद्यपि नरकद्विक की बंधावलिका और उदयावलिका तथा मनुष्यद्विक की संक्रमावलिका और उदयावलिका इस तरह चार आवलिका ज्ञात होती हैं, परन्तु नरकद्विक की उदयावलिका और मनुष्यद्विक की संक्रमावलिका का काल एक ही होने से कुल मिलाकर तीन आवलिका स्थिति ही कम होती है, अधिक नहीं। इसी प्रकार अन्य संक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों के लिये भी समझना चाहिये।
तीर्थकरनाम और आहारकसप्तक को अनुक्रम से सम्यग्दृष्टि आदि जीव और संयत बांधते हैं। उनको उनका उत्कृष्ट स्थितिबंध अंतः कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण ही होता है तथा समस्त कर्म प्रकृतियों की सत्ता भी उनको अंतःकोडाकोडी से अधिक नहीं होती है, इसलिये संक्रम द्वारा भी उन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता अन्तःकोडाकोडी से अधिक नहीं होती है।
यहाँ शंका होती है कि क्या ये प्रकृतियां बंधोत्कृष्टा हैं अथवा संक्रमोत्कृष्टा ? अतएव अब इस शंका का समाधान करते हैं
तित्थयराहाराणं संकमणे बंधसंतएसु पि। अंतोकोडाकोडी तहावि ता संकमुक्कोसा ॥३८॥ एवइय संतया जं सम्मद्दिट्ठीण सव्वकम्मेसु । आऊणि बंधउक्कोसगाणि जं णण्णसंकमणं ॥३६॥
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