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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३७ उक्त उत्कृष्टा-प्रकृतिद्वय के उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम का परिमाण बंधुक्कोसाण ठिई मोत्तु दो आवली उ संकमइ । सेसा इयराण पुणो आवलियतिगं पमोत्तूणं ॥३७॥ शब्दार्थ-बंधुक्कोसाण-बंधोत्कृष्टा प्रकृतियों की, ठिइ--स्थिति, मोत्त -छोड़कर, दो आवली—दो आवलिका, उ--ही, संकमइ-संक्रमित होती है, सेसा-शेष, इयराण-इतरों (संक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों) की, पुणो--- पुनः और, आवलियतिग-तीन आवलिका, पमोत्तूणं-छोड़कर न्यून । गाथार्थ-बंधोत्कृष्टा प्रकृतियों की दो आवलिका स्थिति को छोड़कर और इतरों (संक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों) की तीन आवलिका स्थिति छोड़कर शेष स्थिति संक्रमित होती है। विशेषार्थ-दोनों प्रकार की प्रकृतियों की कितनी-कितनी स्थिति संक्रमित होती है, यह स्पष्ट करते हैं - बंधोत्कृष्टा प्रकृतियों की बंधावलिका और उदयावलिका रूप दो आवलिकाप्रमाण स्थिति को छोड़कर शेष समस्त स्थिति संक्रमित होती है। दो आवलिका प्रमाण स्थिति छोड़ने का कारण यह है कि किसी भी कर्म के बंध समय से लेकर एक आवलिका पर्यन्त उसमें किसी भी करण की प्रवृत्ति नहीं होती है। आवलिका बीतने के बाद ही करण की प्रवृत्ति होती है। अतः ऐसा नियम होने से जिस समय उत्कृष्ट स्थिति का बंध होता है, उस समय से लेकर एक आवलिका जाने के बाद, वह स्थिति संक्रम के योग्य होती है। इसी प्रकार कोई भी प्रकृति चाहे वह प्रदेशोदयवती हो या रसोदयवती हो उदय समय से लेकर आवलिका काल में भोगे जायें उतने स्थानों को उदयावलिका कहते हैं और उसमें भी कोई करण लागू नहीं होता है, उससे ऊपर करण लागू होता है। अतएव बंधावलिका और उदयावलिका हीन शेष समस्त स्थिति संक्रमित होती है। ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, असातावेदनीय और अंतरायपंचक की बंधावलिका जाने के बाद उदयावलिका से ऊपर की अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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