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________________ पंचसंग्रह : ७ इस प्रकार नामकर्म के बारह सत्तास्थानों में से आठ संक्रमस्थान होते हैं और दूसरे चार संक्रमस्थान सत्तास्थान से बाहर के हैं। वे इस प्रकार-एक सौ एक, चौरानवै, अठासी और इक्यासी प्रकृतिक। इस प्रकार होने से सत्तास्थान जैसे बारह हैं वैसे ही संक्रमस्थान भी बारह होते हैं। किन्तु दोनों में कुछ भिन्नता है । वे इस प्रकार १०३, १०२, १०१, ६६, ६५, ६४,६३, ८६, ८८, ८४, ८२, ८१ प्रकृतिक ।। __नामकर्म के इन सत्तास्था नों और संक्रमस्थानों को स्पष्टता से समझने का प्रारूप इस प्रकार हैनामकर्म के सत्तास्थान और संक्रमस्थान नामकर्म के सत्तास्थान--१०३, १०२, ६६, ६५, ६३, ६०, ८६, ८४, ८३, ८२, प्रकृतिक। ____ नामकर्म के संक्रमस्थान-१०३, १०२, १०१, ६६, ६५, ६४, ६३, ८६, ८८, ८४, ८२, ८१ प्रकृतिक ।। पतद्ग्रहस्थानों को बतलाने के लिये पहले नामकर्म के बंधस्थानों का निर्देश करते हैं कि तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस और एक प्रकृतिक। इन आठों बंधस्थानों के बराबर अर्थात् बंधस्थानों के समान ही और उतनी-उतनी प्रकृतियों के समुदाय रूप नामकर्म के पतद्ग्रहस्थान जानना चाहिये। वे इस प्रकार-२३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१ और १ प्रकृतिक। इस प्रकार से नामकर्म के संक्रमस्थानों और पतद्ग्रहस्थानों का निर्देश करने के बाद अब कौन प्रकृतियां किस में संक्रमित होती हैं ? इसका निरूपण करते हैं। नामकर्म के पतद्ग्रहस्थानों में संक्रमण पढमचउक्कं तित्थगरवज्जितं अधुवसंततियजुत्तं । तिगपणछव्वीसेसु संकमइ पडिग्गहेसु तिसु ॥३०॥ शब्दार्थ-पढमचउक्कं--प्रथमचतुष्क, तित्थगरवज्जितं-तीर्थकरनामकर्म वाले को छोड़कर, अधुवसंततियजुत्तं-अध्र वसत्तात्रिकयुक्त, तिगपणछन्वीसेसु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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