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________________ पंचसंग्रह : ७ ग्दृष्टि के उपशमश्रेणि और क्षपकश्रेणि में होते हैं। यद्यपि गाथा में सात आदि छह और पांच आदि पांच पतद्ग्रह उभय श्रेणि में होते हैं, ऐसा सामान्य से कहा है । लेकिन श्रेणिगत पूर्व में कहे गये संक्रम पतद्ग्रह स्थानों को ध्यान में रखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सात आदि छह पतद्ग्रहस्थान उपशमसम्यक्त्वी के उपशमश्रेणि में होते हैं । इसीलिये यहाँ उक्त प्रकार से स्पष्ट किया है। किन्तु मात्र सात आदि छह उपशमश्रेणि में और पांच आदि पांच क्षपकश्रेणि में होते हैं, ऐसा क्रम नहीं समझना चाहिये। ___इस प्रकार से मोहनीयकर्म के संक्रमस्थानों और पतद्ग्रहस्थानों के विषय में विस्तार से निरूपण जानना चाहिये । अब शेष रहे नामकर्म के संक्रमस्थानों और पतद्ग्रहस्थानों का विचार करते हैं। नामकर्म के संक्रमस्थान और पतद्ग्रहस्थान सत्तागत प्रकृतियां संक्रमित होती हैं। अतएव संक्रमस्थानों को जानने के लिये पहले नामकर्म के सत्तास्थानों को बतलाते हैं। नामकर्म के बारह सत्तास्थान हैं। वे इस प्रकार-१०३, १०२, ६६, ६५, ६३, ६०, ८६, ८४, ८३, ८२, ६ और ८ प्रकृतिक तथा संक्रमस्थान भी बारह है-१०३, १०२, १०१, ६६, ६५, ६४, ६३, ८६, ८८, ८४, ८२, ८१ प्रकृतिक । ये संक्रमस्थान सत्तास्थानों की उपेक्षा कुछ भिन्न संख्या वाले हैं । जिनका यथाक्रम से स्पष्टीकरण इस प्रकार एक सौ तीन, एक सौ दो, छियानवै, पंचानवै, इन चार सत्तास्थानों की 'प्रथम' यह संज्ञा है। जहाँ प्रथमसत्तास्थानचतुष्क कहा जाये, वहाँ यह चार सत्तास्थान ग्रहण करना चाहिये। इनमें नामकर्म १. सुगमता से समझने के लिये मोहनीयकर्म के पतद्ग्रहस्थानों में संक्रम स्थानों के प्रारूप परिशिष्ट में देखिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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